अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 3
यः कु॒क्षिः सो॑म॒पात॑मः समु॒द्र इ॑व॒ पिन्व॑ते। उ॒र्वीरापो॒ न का॒कुदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । कु॒क्षि: । सो॒म॒ऽपात॑म: । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । पिन्व॑ते ॥ उ॒र्वी: । आप॑: । न । का॒कुद॑: ॥७१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो न काकुदः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । कुक्षि: । सोमऽपातम: । समुद्र:ऽइव । पिन्वते ॥ उर्वी: । आप: । न । काकुद: ॥७१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 3
विषय - कर्मवीर, न कि वाग्वीर
पदार्थ -
१. (यः कक्षि:) = जो उदर (सोमपातम:) = अधिक-से-अधिक सोम का पान करनेवाला होता है, अर्थात् सोम को अपने में पूर्णतया सुरक्षित करता है, वही (समुद्रः इव) = अन्तरिक्ष के समुद्र की भाँति (पिन्वते) = सेचन करनेवाला होता है। समुद्र जैसे मेषरूप होकर सबपर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है, इसी प्रकार यह संयमी पुरुष भी सभी को सुखी करने का प्रयत्न करता है। २. इस संयमी पुरुष के (आप:) = कर्म (उर्वी) = विशाल होते हैं। उदारं धर्ममित्याहुः' उदारता व विशालता ही तो कर्मों को धर्म बनाती है। संकुचित मनोवृत्ति से किये जानेवाले कर्म पाप होते हैं। (न काकुदः) = यह कर्मबीर पुरुष बहुत बोलता नहीं। [काकुद-वाणी]। यह वीर कर्म पर ही बल देता है, बोलने पर नहीं।
भावार्थ - हम सोम-रक्षण करते हुए अन्तरिक्षस्थ मेष की भौति सबपर सखों का वर्षण करनेवाले हों, उदार [विशाल] कार्यों को करनेवाले बनें, बोलें कम।
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