अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 7
इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः। म॒हाँ अ॑भि॒ष्टिरोज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । आ । इ॒हि॒ । मत्सि॑ । अन्ध॑स: । विश्वे॑भि: । सो॒म॒पर्व॑ऽभि: ॥ म॒हान् । अ॒भि॒ष्टि: । ओज॑सा ॥७१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः। महाँ अभिष्टिरोजसा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । आ । इहि । मत्सि । अन्धस: । विश्वेभि: । सोमपर्वऽभि: ॥ महान् । अभिष्टि: । ओजसा ॥७१.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 7
विषय - सोम-रक्षण व महत्त्व-प्राप्ति
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे इन्द्र इन्द्रियों के (अधिष्ठात:) = जीव! तू (इहि) = मेरी ओर आ। (अन्धसः) = इस सोम के द्वारा तू (मत्सि) = आनन्द का अनुभव कर। इन (विश्वेभिः) = सब (सोमपर्वभिः) = सोम के शरीर में ही पूरणों के द्वारा (महान्) = तू बड़ा बनता है। सोम-रक्षण द्वारा मनुष्य उन्नत होता हुआ अन्तत: ब्रह्म को प्राप्त होता है। २. इसप्रकार महान् बनकर (ओजसा अभिष्टिः) = ओजस्विता के साथ शत्रुओं का अभिभविता बन। [शत्रूणामभिभविता]। सोम-रक्षण से ही 'तेज, बल, ओज, व सहस्' प्राप्त होते हैं और हम शत्रुओं को कुचलने में समर्थ होते हैं।
भावार्थ - प्रभु की उपासना करते हुए हम सोम का रक्षण करनेवाले बनें। यही महत्त्व प्राप्ति का मार्ग है। इसी से हम ओजस्वी बनकर शत्रुओं का अभिभव करनेवाले बनेंगे।
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