अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 10
असृ॑ग्रमिन्द्र ते॒ गिरः॒ प्रति॒ त्वामुद॑हासत। अजो॑षा वृष॒भं पति॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअसृ॑ग्रम् । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । गिर॑: । प्रति॑ । त्वाम् । उत् । अ॒हा॒स॒त॒ ॥ अजो॑षा: । वृ॒ष॒भम् । पति॑म् ॥७१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठअसृग्रम् । इन्द्र । ते । गिर: । प्रति । त्वाम् । उत् । अहासत ॥ अजोषा: । वृषभम् । पतिम् ॥७१.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 10
विषय - 'सखों के वर्षक व पालक' प्रभु
पदार्थ -
१.हे (इन्द्र) = मेरे सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो। (ते गिरः असृग्रम) = आपके स्तुतिवचनों का निर्माण करता हूँ। ये स्तुतिवचन (त्वाम् प्रति) = आपके प्रति (उद् अहासत) = उद्गत होकर प्राप्त होते हैं। २. ये मेरे स्तुतिवचन (वृषभम्) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले (पतिम्) = सबके रक्षक आपको (अजोषा) = प्रिय हों-आपकी प्रीति का कारण बनें। मै कर्मशील बनकर इन स्तुतिवचनों से आपको आराधित कर पाऊँ।
भावार्थ - हम कर्मों के द्वारा प्रभु का स्तवन करें। प्रभु को ही सुखों का वर्धक व पालक जानें। ये हमारी स्तुतियाँ हमें प्रभु का प्रीतिपात्र बनाएँ।
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