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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 73

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 73/ मन्त्र 4
    सूक्त - वसुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-७३

    य॒दा वज्रं॒ हिर॑ण्य॒मिदथा॒ रथं॒ हरी॒ यम॑स्य॒ वह॑तो॒ वि सू॒रिभिः॑। आ ति॑ष्ठति म॒घवा॒ सन॑श्रुत॒ इन्द्रो॒ वाज॑स्य दी॒र्घश्र॑वस॒स्पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । वज्र॑म् । हिर॑ण्यम् । इत् ।अथ॑ । रथ॑म् । हरी॒ इ॒ति । यम् । अ॒स्य॒ । वह॑त: । वि । सू॒रिऽभि॑: ॥ आ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । म॒घऽवा॑ । सन॑ऽश्रुत: । इन्द्र॑: । वाज॑स्य । दी॒र्घऽश्र॑वस: । पति॑: ॥७३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा वज्रं हिरण्यमिदथा रथं हरी यमस्य वहतो वि सूरिभिः। आ तिष्ठति मघवा सनश्रुत इन्द्रो वाजस्य दीर्घश्रवसस्पतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । वज्रम् । हिरण्यम् । इत् ।अथ । रथम् । हरी इति । यम् । अस्य । वहत: । वि । सूरिऽभि: ॥ आ । तिष्ठति । मघऽवा । सनऽश्रुत: । इन्द्र: । वाजस्य । दीर्घऽश्रवस: । पति: ॥७३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 73; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. (यदा) = जब (वज्रम्) = [वज् गतौ] हमारी क्रिया (हिरण्यम्) = हित-रमणीय [स्वर्णीय] होती है, अथवा जब हमारी सब क्रियाएँ स्वर्णीय मध्य से होती हैं, अर्थात् जब हम जागने व खाने पीने आदि सारी क्रियाओं में मध्यमार्ग का अवलम्बन करते हैं, (अथा) = तब (इत्) = निश्चय से (रथम्) = हमारे शरीर-रथ को (हरी) = इन्द्रियाश्व (यमस्य वहतः) = उस नियन्ता प्रभु की ओर ले-चलते हैं। २. उस समय (मघवा) = ऐश्वयों व यज्ञोंवाला होकर (सनश्रुतः) = सनातन वेदज्ञानवाला होता हुआ (विसूरिभिः) = विशिष्ट ज्ञानियों के साथ आतिष्ठति सर्वथा स्थित होता है। यही व्यक्ति (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय बनता है और (वाजस्य) = बल का तथा (दीर्घश्रवस:) = तामस् व राजस् वासनाओं के विदारक ज्ञान का (पति:) = स्वामी होता है।

    भावार्थ - प्रभुभक्त हितरमणीय क्रियाओंबाला होता है। बल व ज्ञान का पति बनता है। जितेन्द्रिय होता है।

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