अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 73/ मन्त्र 1
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिपदा विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-७३
तुभ्येदि॒मा सव॑ना शूर॒ विश्वा॒ तुभ्यं॒ ब्रह्मा॑णि॒ वर्ध॑ना कृणोमि। त्वं नृभि॒र्हव्यो॑ वि॒श्वधा॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑ । इत् । इ॒मा । सव॑ना । शू॒र॒ । विश्वा॑ । तुभ्य॑म् । ब्रह्मा॑णि । वर्ध॑ना । कृ॒णो॒मि॒ । त्वम् । नृऽभि॑: । हव्य॑: । वि॒श्वधा॑ । अ॒सि॒ ॥७३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्येदिमा सवना शूर विश्वा तुभ्यं ब्रह्माणि वर्धना कृणोमि। त्वं नृभिर्हव्यो विश्वधासि ॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्य । इत् । इमा । सवना । शूर । विश्वा । तुभ्यम् । ब्रह्माणि । वर्धना । कृणोमि । त्वम् । नृऽभि: । हव्य: । विश्वधा । असि ॥७३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 73; मन्त्र » 1
विषय - सवना बह्माणि
पदार्थ -
१.हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! (इमा) = ये (विश्वा) = सब (सवना) = यज्ञ (तुभ्य इत्) = आपके लिए ही हैं-आपकी प्राप्ति के लिए ही ये यज्ञ किये जाते हैं। (तुभ्यम्) = आपकी ही (वर्धना) = महिमा का वर्धन करनेवाले इन (ब्रह्माणि) = ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तोत्रों को (कृणोमि) = करता हूँ। आपकी महिमा का स्तवन करता हुआ मैं आपके प्रकाश को अपने में बढ़ा पाता हूँ। २. हे प्रभो! (त्वम्) = आप (नृभिः) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले मनुष्यों से (विश्वधा) = सब प्रकार से (हव्यः असि) = पुकारने योग्य हैं। आपका आराधन करता हुआ ही मनुष्य वासनाओं से बचकर उन्नति पथ पर आगे बढ़ता है।
भावार्थ - हम यज्ञों-स्तोत्रों व आराधनों को करते हुए आगे बढ़ते चलें और प्रभु को प्राप्त करें।
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