अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 73/ मन्त्र 6
यो वा॒चा विवा॑चो मृ॒ध्रवा॑चः पु॒रू स॒हस्राशि॑वा ज॒घान॑। तत्त॒दिद॑स्य॒ पौंस्यं॑ गृणीमसि पि॒तेव॒ यस्तवि॑षीं वावृ॒धे शवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । वा॒चा । विऽवा॑च: । मृ॒ध्रऽवा॑च: । पु॒रू । स॒हस्रा॑ । अशि॑वा । ज॒घान॑ ॥ तत्ऽत॑त् । इत् । अ॒स्य॒ । पौंस्य॑म् । गृ॒णी॒म॒सि॒ । पि॒ताऽइ॑व । य: । तवि॑षीम् । व॒वृ॒धे । शव॑: ॥७३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वाचा विवाचो मृध्रवाचः पुरू सहस्राशिवा जघान। तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसि पितेव यस्तविषीं वावृधे शवः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । वाचा । विऽवाच: । मृध्रऽवाच: । पुरू । सहस्रा । अशिवा । जघान ॥ तत्ऽतत् । इत् । अस्य । पौंस्यम् । गृणीमसि । पिताऽइव । य: । तविषीम् । ववृधे । शव: ॥७३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 73; मन्त्र » 6
विषय - न विवाचः, न मृध्रवाचः
पदार्थ -
१. (यः) = जो (वाच:) = वेदवाणी के द्वारा (विवाच:) = विरुद्ध वाणीवाले अथवा बहुत बोलनेवाले तथा (मृध्रवाचः) = हिंसायुक्त वाणीवाले, अर्थात् कटुभाषी (पुरू सहस्त्रा) = अनेक हजारों (अशिवा) = अकल्याणकर शत्रुओं को (जघान) = नष्ट करते हैं। वेदवाणी द्वारा उपदेश देकर प्रभु मनुष्यों को 'बहुत बोलने से तथा कड़वा बोलने से रोकते हैं। बहुत बोलने व कड़वा बोलनेवाले व्यक्ति कर्मवीर नहीं हुआ करते। २. कर्मवीर बनने के लिए हम (अस्य) = इस प्रभु के (तत् तत्) = उस उस (पौंस्य) = वीरतायुक्त कर्म का (इत्) = निश्चय से (गृणीमसि) = स्तवन करते हैं। इस स्तवन के द्वारा हम भी वीरतापूर्ण कर्मों को करने की प्रेरणा करते हैं। उस समय वे प्रभु (पिता इव) = हमारे पिता की भाँति होते हैं, (यः) = जोकि (तविषीम्) = हमारे बलों को तथा बल के द्वारा (शव:) = क्रियाशीलता को वावृधे बढ़ाते हैं।
भावार्थ - हम असंगत व बहुत प्रलापों को तथा हिंसायुक्त वाणियों को छोड़कर वीरतापूर्ण कों में प्रवृत्त हों। प्रभु हमारे रक्षक होंगे, वे हमें बल व क्रियाशीलता प्राप्त कराएंगे। कर्मवीर बनकर हम सुख-निर्माण करनेवाले 'शुन:शेप' बनेंगे। 'शुन:शेप' ही अगले सूक्त के ऋषि है -
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