अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 73/ मन्त्र 5
सो चि॒न्नु वृ॒ष्टिर्यू॒थ्या॒ स्वा सचाँ॒ इन्द्रः॒ श्मश्रू॑णि॒ हरि॑ता॒भि प्रु॑ष्णुते। अव॑ वेति सु॒क्षयं॑ सु॒ते मधूदिद्धू॑नोति॒ वातो॒ यथा॒ वन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसो इति॑ । चि॒त् । नु । वृ॒ष्टि: । यू॒थ्या॑ । स्वा । सचा॑ । इन्द्र॑: । श्मश्रू॑णि: । हरि॑ता । अ॒भि । प्रु॑ष्णु॒ते॒ ॥ अव॑ । वे॒ति॒ । सु॒ऽक्षय॑म् । सु॒ते । मधु॑ । उत् । इत् । धू॒नो॒ति॒ । वात॑: । यथा॑ । वन॑म् ॥७३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
सो चिन्नु वृष्टिर्यूथ्या स्वा सचाँ इन्द्रः श्मश्रूणि हरिताभि प्रुष्णुते। अव वेति सुक्षयं सुते मधूदिद्धूनोति वातो यथा वनम् ॥
स्वर रहित पद पाठसो इति । चित् । नु । वृष्टि: । यूथ्या । स्वा । सचा । इन्द्र: । श्मश्रूणि: । हरिता । अभि । प्रुष्णुते ॥ अव । वेति । सुऽक्षयम् । सुते । मधु । उत् । इत् । धूनोति । वात: । यथा । वनम् ॥७३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 73; मन्त्र » 5
विषय - सुक्षयम् [उत्तम गृह]
पदार्थ -
१. (स उ) = और वह (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (चित् नु) = निश्चय से अब (वृष्टिः) = सबपर सुखों की वृष्टि करनेवाला होता है। प्रभुभक्त सर्वभूतहितेरत होता ही है। यह (स्वा यूथ्या) = अपने समूह में होनेवाले ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण व अन्त:करण के पञ्चों को (सचा) = उस प्रभु से मेलवाला करता है। २. (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (श्मश्रूणि) = शरीर में [श्म] आश्रित [श्रि]'इन्द्रियों, मन व बुद्धि'को (हरिता) = सब मलों का हरण करनेवाले सोमकणों से (अभिप्रुष्णुते) = सींचता है। यह सोम इन्द्रियों को सशक्त, मन को निर्मल व बुद्धि को तीव्र बनाता है। इसप्रकार यह (सुक्षयम्) = उत्तम शरीररूप गृह को (अववेति) = आभिमुख्येन प्राप्त होता है। (सुते) = सोम के उत्पन्न होने पर (मधु) = यह सारभूत सोम (इत्) = निश्चय से (उत् धूनोति) = सब मलों को इसप्रकार कम्पित कर देता है (यथा) = जैसे (वात: वनम्) = वायु वन को। वायु पत्रों को हिलाकर उनके मल को दूर कर देता है, इसी प्रकार सोम 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि'को निर्मल कर देता है।
भावार्थ - सोम शरीर में सुरक्षित होकर निर्मलता का साधक होता है।
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