अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 88/ मन्त्र 3
बृह॑स्पते॒ या प॑र॒मा प॑रा॒वदत॒ आ ते॑ ऋत॒स्पृशो॒ नि षे॑दुः। तुभ्यं॑ खा॒ता अ॑व॒ता अद्रि॑दुग्धा॒ मध्व॑ श्चोतन्त्य॒भितो॑ विर॒प्शम् ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑स्पते । या । प॒र॒मा । प॒रा॒ऽवत् । अत॑: । आ । ते॒ । ऋ॒त॒ऽस्पृश॑: । नि । से॒दु॒: ॥ तुभ्य॑म् । खा॒ता: । अ॒व॒ता: । अद्रि॑ऽदुग्धा: । मध्व॑: । श्चो॒त॒न्ति॒ । अ॒भित॑: । वि॒ऽर॒प्शम् ॥८८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पते या परमा परावदत आ ते ऋतस्पृशो नि षेदुः। तुभ्यं खाता अवता अद्रिदुग्धा मध्व श्चोतन्त्यभितो विरप्शम् ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पते । या । परमा । पराऽवत् । अत: । आ । ते । ऋतऽस्पृश: । नि । सेदु: ॥ तुभ्यम् । खाता: । अवता: । अद्रिऽदुग्धा: । मध्व: । श्चोतन्ति । अभित: । विऽरप्शम् ॥८८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 88; मन्त्र » 3
विषय - यज्ञशीलता व स्वर्गप्राप्ति
पदार्थ -
१. हे (बृहस्पते) = सर्वोच्च दिशा के अधिपते परमात्मन् ! (या) = जो (ते) = आपके (परावत् परमा) = सुदूर से सुदूर देश से भी उत्कृष्ट स्थान है, उनमें (ऋतस्पृशः) = [ऋत-यज्ञ]-यज्ञों के सम्पर्कवाले यज्ञशील पुरुष (आनिषेदुः) आसीन होते हैं। पृथिवीलोक से ऊपर अन्तरिक्षलोक, अन्तरिक्षलोक से ऊपर द्युलोक तथा द्युलोक से ऊपर [दिवो नाकस्य पृष्ठात्०] स्वर्गलोक है। यहाँ यज्ञशील पुरुष ही पहुँचते हैं। २. (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए ही (अद्रिदुग्धा:) = [आदृ-to adore, दुह प्रपूरणे] उपासना के द्वारा अपने में पूरित हुए-हुए (मध्वः) = सोमकण (अभितः विरशम्) = दोनों ओर महान् शब्दराशि को (श्चोतन्ति) = क्षरित करते हैं। अपराविद्या की शब्दराशि ही प्रकृतिविद्या है, पराविद्या की शब्दराशि आत्मविद्या है। जब हम सोमकणों का रक्षण करते हैं तब ये दोनों ही विद्याएँ हमें प्रास होती हैं। एक इहलोक को सुन्दर बनाती है तो दूसरी परलोक को! 'अभितः' शब्द इसीभाव का द्योतक है। ये सोमकण (खाता: अवता:) = खोदे गये कुओं के समान हैं। जैसे ये कुएँ जलराशि को प्राप्त कराते हैं, इसी प्रकार ये सोमकण ज्ञान की जलराशि को प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ - यज्ञशील बनकर हम स्वर्ग में स्थित होते हैं। शरीर में सुरक्षित सोमकण हमें ज्ञान जल-राशि को प्राप्त कराते हैं। उसमें स्नान करके हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले होते हैं।
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