अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 88/ मन्त्र 2
धु॒नेत॑यः सुप्रके॒तं मद॑न्तो॒ बृह॑स्पते अ॒भि ये न॑स्तत॒स्रे। पृष॑न्तं सृ॒प्रमद॑ब्धमू॒र्वं बृह॑स्पते॒ रक्ष॑तादस्य॒ योनि॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठधु॒नऽइ॑तय: । सु॒ऽप्र॒के॒तम् । मद॑न्त: । बृह॑स्पते । अ॒भि । ये ।न॒: । त॒त॒स्रे ॥ पृष॑न्तम् । सृ॒प्रम् । अद॑ब्धम् । ऊ॒र्वम् । बृह॑स्पते । रक्ष॑ताम् । अ॒स्य॒ । योनि॑म् ॥८८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
धुनेतयः सुप्रकेतं मदन्तो बृहस्पते अभि ये नस्ततस्रे। पृषन्तं सृप्रमदब्धमूर्वं बृहस्पते रक्षतादस्य योनिम् ॥
स्वर रहित पद पाठधुनऽइतय: । सुऽप्रकेतम् । मदन्त: । बृहस्पते । अभि । ये ।न: । ततस्रे ॥ पृषन्तम् । सृप्रम् । अदब्धम् । ऊर्वम् । बृहस्पते । रक्षताम् । अस्य । योनिम् ॥८८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 88; मन्त्र » 2
विषय - स्वाध्याय व दोष-निवारण
पदार्थ -
१. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! (ये) = जो (न:) = हममें से (धुनेतय:) = [धुना ईतिर्येषाम्] शत्रुओं को कम्पित करनेवाली गतिवाले (सप्रकेतम् मदन्तः) = उत्कृष्ट ज्ञान के साथ आनन्द का अनुभव करते हुए (अभिततस्त्रे) = प्रात:-सायं दोनों समय दोषों को अपने से दूर फेंकते हैं। [तस् reject, cast]| (अस्य) = इस मनुष्य के (योनिम्) = बुराइयों के अमिश्रण व अच्छाइयों के मिश्रण के प्रयत्न की (रक्षतात्) = आप रक्षा करें। २. यह योनि ही (पृषन्तम्) = सब सुखों का सेचन करनेवाली है। (सप्रम्) = अग्रगति की साधक है, (अदब्धम्) = इसे हिंसित नहीं होने देती और (ऊर्वम्) = विशाल है। प्रात:-सायं दोषनिवारण के कार्य से ही इसका जीवन सुखसिक्त, अग्रगतिवाला, अहिंसित तथा विशाल बनता है।
भावार्थ - हम प्रात:-सायं स्वाध्याय में आनन्द लेते हुए दोष-निवारण के लिए यत्नशील हों। प्रभु-कृपा से हमारा यह कार्य सुखवर्षक, उन्नतिकारक, अहिंसक व हमें विशाल बनानेवाला होगा।
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