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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 88

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 88/ मन्त्र 6
    सूक्त - वामदेवः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८८

    ए॒वा पि॒त्रे वि॒श्वदे॑वाय॒ वृष्णे॑ य॒ज्ञैर्वि॑धेम॒ नम॑सा ह॒विर्भिः॑। बृह॑स्पते सुप्र॒जा वी॒रव॑न्तो व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । पि॒त्रे । वि॒श्वऽदे॑वाय । वृष्णे॑ । य॒ज्ञै: । वि॒धे॒म॒ । नम॑सा । ह॒वि:ऽभि॑: ॥ बृह॑स्पते । सु॒ऽप्र॒जा: । वी॒रऽव॑न्त: । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑य: । र॒यी॒णाम् ॥८८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा पित्रे विश्वदेवाय वृष्णे यज्ञैर्विधेम नमसा हविर्भिः। बृहस्पते सुप्रजा वीरवन्तो वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । पित्रे । विश्वऽदेवाय । वृष्णे । यज्ञै: । विधेम । नमसा । हवि:ऽभि: ॥ बृहस्पते । सुऽप्रजा: । वीरऽवन्त: । वयम् । स्याम । पतय: । रयीणाम् ॥८८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 88; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार वलासुर को विनिष्ट करके हम (एवा) = सचमुच उस (पित्रे) = पालक (विश्वदेवाय) = सब दिव्य गुणों के पुञ्ज (वृष्णे) = शक्तिशाली व सुखवर्षक प्रभु के लिए (यज्ञैः) = श्रेष्ठतम कर्मों से (नमसा) = उन कमों के अहंकार को छोड़कर नम्रभाव से और (हविर्भिः) = सदा दानपूर्वक अदन से (विधेम) = पूजा करें। २. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! इसप्रकार 'यज्ञों-नमन व हवियों' से आपका पूजन करते हुए (वयम्) = हम (सुप्रजा:) = उत्तम प्रजाओंवाले व (वीरवन्त:) = वीरत्व की भावनावाले तथा (रयीणां पतयः) = धनों के स्वामी-न कि धनों के दास (स्याम) = हों।

    भावार्थ - 'यज्ञ, नमन व हवियों' से प्रभु-पूजन करते हुए हम "उत्तम सन्तान, वीरता व धनों के स्वामित्व' को प्राप्त करें। यज्ञों से उत्तम प्रजा को, प्रभु के प्रति नमन से वीरता को तथा हवियों [दान] से धनों के स्वामित्व को प्रास करनेवाले हों। 'उत्तम प्रजा, वीरता व धन स्वामित्व' को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाला यह 'कृष्ण' बनता है और इन्द्र का इसप्रकार आराधन करता है -

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