अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 88/ मन्त्र 5
स सु॒ष्टुभा॒ स ऋक्व॑ता ग॒णेन॑ व॒लं रु॑रोज फलि॒गं रवे॑ण। बृह॒स्पति॑रु॒स्रिया॑ हव्य॒सूदः॒ कनि॑क्रद॒द्वाव॑शती॒रुदा॑जत् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । सु॒ऽस्तु॒भा॑ । स: । ऋक्व॑ता । ग॒णेन॑ । व॒लम् । रु॒रो॒ज॒ । फ॒लि॒ऽगम् । र॒वे॑ण ॥ बृह॒स्पति॑: । उ॒स्रिया॑: । ह॒व्य॒ऽसूद॑: । कनि॑क्रदत् । वाव॑शती: । उत् । आ॒ज॒त् ॥८८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
स सुष्टुभा स ऋक्वता गणेन वलं रुरोज फलिगं रवेण। बृहस्पतिरुस्रिया हव्यसूदः कनिक्रदद्वावशतीरुदाजत् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । सुऽस्तुभा । स: । ऋक्वता । गणेन । वलम् । रुरोज । फलिऽगम् । रवेण ॥ बृहस्पति: । उस्रिया: । हव्यऽसूद: । कनिक्रदत् । वावशती: । उत् । आजत् ॥८८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 88; मन्त्र » 5
विषय - 'वल व फलिगं' का विनाश
पदार्थ -
१. (सः) = वे (बृहस्पति:)= ज्ञान के स्वामी प्रभु (सुष्टुभा) = उत्तम स्तुतियोंवाले गणेन मन्त्रसमूह से तथा (स:) = वे प्रभु (ऋक्वता) = ऋचाओंवाले-विज्ञानवाले [गणेन] मन्त्रसमूह से (वलम्) = ज्ञान के आवरणभूत [Vail] इस वल नामक असुर को (रुरोज) = विनष्ट करते हैं। (रवेण) = हृदयस्थरूपेण इन ज्ञान की वाणियों के उच्चारण से (फलिगम्) = विशीर्णता की ओर ले जानेवाली [बल विशरणे] आसुरीवृत्ति को विनष्ट करते हैं। २. (बृहस्पति:) = वे ज्ञान के स्वामी प्रभु (हव्यसूद:) = सब हव्य पदार्थों को-पवित्र यज्ञिय पदार्थों को प्राप्त करानेवाली (वावशती:) = हमारा अत्यन्त हित चाहती हुई (उस्त्रिया:) = ज्ञान की रश्मियों को (उदाजत्) = हममें उत्कर्षेण प्रेरित करते हैं। इन ज्ञानरश्मियों को प्राप्त करके ही हम इस संसार में अयज्ञिय बातों से दूर रहकर अपना हित सिद्ध कर पाते हैं।
भावार्थ - प्रभु ज्ञान की वाणियों के द्वारा ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करते हैं और सब विदीर्ण करनेवाली आसुरवृत्तियों को दूर करते हैं। अब हव्य पदार्थों की ओर हमारा झुकाव होता है।
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