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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 88

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 88/ मन्त्र 4
    सूक्त - वामदेवः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८८

    बृह॒स्पतिः॑ प्रथ॒मं जाय॑मानो म॒हो ज्योति॑षः पर॒मे व्योमन्। स॒प्तास्य॑स्तुविजा॒तो रवे॑ण॒ वि स॒प्तर॑श्मिरधम॒त्तमां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पति॑: । प्र॒थ॒मम् । जाय॑मान: । म॒ह: । ज्योति॑ष: । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥ स॒प्तऽआ॑स्य: । तु॒वि॒ऽजा॒त: । रवे॑ण । वि । स॒प्तऽर॑श्मि: । अ॒ध॒म॒त् । तमां॑सि ॥८८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिषः परमे व्योमन्। सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत्तमांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पति: । प्रथमम् । जायमान: । मह: । ज्योतिष: । परमे । विऽओमन् ॥ सप्तऽआस्य: । तुविऽजात: । रवेण । वि । सप्तऽरश्मि: । अधमत् । तमांसि ॥८८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 88; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. (बृहस्पति:) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (परमे व्योमन्) = उत्कृष्ट हृदयाकाश में (महःज्योतिष:) = महान् ज्ञानज्योति से (प्रथमं जायमान:) = विस्तार के साथ प्रादुर्भूत होता हुआ (रवेण) = ज्ञान की वाणियों के उच्चारण से (तमांसि) = अज्ञानान्धकारों को (वि अधमत्) = विनष्ट करता है। हृदय में प्रभु का प्रकाश होते ही सब अन्धकार नष्ट हो जाता है। २. ये प्रभु (सप्तास्यः) = सात छन्दों से बनी हुई वेदवाणीरूप सात मुखोंवाले हैं। (तुविजात:) = महान् प्रादुर्भाववाले हैं-प्रभु-उपासक में महान् गुणों का विकास करते हैं। (सप्तरश्मि:) = सात रश्मियोंवाले सूर्य की भाँति ये प्रभु सात छन्दों से बनी वेदवाणीरूप सात रश्मियोंवाले हैं। इन सात रश्मियों से ही ये प्रभु'भूः-भुव: स्व:-मह: जन:-तपः-सत्यम्' नामक सातलोकों को प्रकाशित करते हैं।

    भावार्थ - प्रभु ज्योतिर्मय हैं। सस छन्दोमयी वेदवाणियाँ ही प्रभु के सात मुख हैं। ये ही प्रभुरूप सूर्य की सात रश्मियाँ हैं। इनके द्वारा प्रभु हमारे अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं।

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