अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
यत्प्रेषि॑ता॒ वरु॑णे॒नाच्छीभं॑ स॒मव॑ल्गत। तदा॑प्नो॒दिन्द्रो॑ वो य॒तीस्तस्मा॒दापो॒ अनु॑ ष्ठन ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । प्रऽइ॑षिता: । वरु॑णेन । आत् । शीभ॑म् । स॒म्ऽअव॑ल्गत । तत् । आ॒प्नो॒त् । इन्द्र॑: । व॒: । य॒ती: । तस्मा॑त् । आप॑: । अनु॑ । स्थ॒न॒ ॥१३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्प्रेषिता वरुणेनाच्छीभं समवल्गत। तदाप्नोदिन्द्रो वो यतीस्तस्मादापो अनु ष्ठन ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । प्रऽइषिता: । वरुणेन । आत् । शीभम् । सम्ऽअवल्गत । तत् । आप्नोत् । इन्द्र: । व: । यती: । तस्मात् । आप: । अनु । स्थन ॥१३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
विषय - 'आप्यन्ते इति''आपः'
पदार्थ -
१ (यत्) = जब (वरुणेन) = जलों के अधिष्ठातृदेव वरुण प्रभु से (प्रेषिता) = भेजे हुए तुम (आत्) = उस समय (शीभम्) = शीघ्न (सम् अवल्गत) = सम्यक् गतिवाले होते हो, (तत्) = तब (यती:) = जाते हुए (व:) = तुम्हें (इन्द्रः आप्नोत) = इन्द्रियों का स्वामी जीव प्राप्त करता है, (तस्मात्) = उस कारण से (आप:) ='आप:' इस नामवाले (अनुस्थन) = होते हो। इन्हें इन्द्र-जितेन्द्रिय पुरुष ही प्राप्त करता है। आधिभौतिक जगत् में प्रभु से प्राप्त कराये गये जलों को इन्द्र-राजा नहरों आदि के रूप में प्राप्त करता है।
भावार्थ -
प्रभु से प्रेरित जलों को इन्द्र प्राप्त करता है। प्राप्त किये जाने के कारण इनका नाम 'आप:' हो गया है [आप्नोति, प्राप्नोति]।
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