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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 13/ मन्त्र 5
    सूक्त - भृगुः देवता - वरुणः, सिन्धुः, आपः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - आपो देवता सूक्त

    आपो॑ भ॒द्रा घृ॒तमिदाप॑ आसन्न॒ग्नीषोमौ॑ बिभ्र॒त्याप॒ इत्ताः। ती॒व्रो रसो॑ मधु॒पृचा॑मरंग॒म आ मा॑ प्रा॒णेन॑ स॒ह वर्च॑सा गमेत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । भ॒द्रा: । घृ॒तम् । इत् । आप॑: । आ॒स॒न् । अ॒ग्नीषोमौ॑ । बि॒भ्र॒ती॒ । आप॑: । इत् । ता: । ती॒व्र: । रस॑: । म॒धु॒ऽपृचा॑म् । अ॒र॒म्ऽग॒म: । आ । मा॒ । प्रा॒णेन॑ । स॒ह । वर्च॑सा । ग॒मे॒त् ॥१३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो भद्रा घृतमिदाप आसन्नग्नीषोमौ बिभ्रत्याप इत्ताः। तीव्रो रसो मधुपृचामरंगम आ मा प्राणेन सह वर्चसा गमेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । भद्रा: । घृतम् । इत् । आप: । आसन् । अग्नीषोमौ । बिभ्रती । आप: । इत् । ता: । तीव्र: । रस: । मधुऽपृचाम् । अरम्ऽगम: । आ । मा । प्राणेन । सह । वर्चसा । गमेत् ॥१३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (आप:) ये जल भद्रा:-भन्दनीय [स्तुत्य] व कल्याणकर हैं। अग्निकुण्ड में आहुतिरूपेण डाले हुए (घृतम् इत्) = घृत ही (आपः असन्) = जलरूप हो जाते हैं [अग्नी प्रास्ताहुतिः सम्यगा दित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिः । -मनु० ३.७६]। (ता: आप:) = ये जल (इत्) = निश्चय से (अग्नीषोमो बिभ्रति) = अग्नि व सोमतत्त्वों को धारण करते हैं। सूर्य-किरणों के सम्पर्क से ये अग्नितत्त्व को धारण करते हैं और चन्द्र-किरणों के सम्पर्क से सोमतत्त्व को धारण करनेवाले होते हैं। २. (मधुपचाम्) = मधुर रस से संपृक्त जलों का (रस:) = रस (तीव:) = रोगकृमियों के लिए अतितीक्ष्ण है। यह (अरंगम:) = पर्याप्त गमनवाला-कभी क्षीण न होनेवाला है। यह रस (प्राणेन) = प्राणशक्ति के साथ अथवा चक्षु आदि इन्द्रियों के साथ [प्राणा वाव इन्द्रियाणि] तथा (वर्चसा सह) = वर्चस् [vitality] के साथ (मा आगमेत्) = मुझे प्राप्त हो।

    भावार्थ -

    जल कल्याणकर हैं। अग्निकुण्ड में आहुत घृत ही जल बन जाते हैं। इनमें अग्नि व सोमतत्त्वों का समावेश होता है। इनका तीन रस रोगकृमियों को नष्ट करता हुआ मुझे प्राण व वर्चस् प्राप्त कराए।

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