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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 24

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - वनस्पतिः, प्रजापतिः छन्दः - निचृत्पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - समृद्धि प्राप्ति सूक्त

    वेदा॒हं पय॑स्वन्तं च॒कार॑ धा॒न्यं॑ ब॒हु। सं॒भृत्वा॒ नाम॒ यो दे॒वस्तं व॒यं ह॑वामहे॒ योयो॒ अय॑ज्वनो गृ॒हे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेद॑ । अ॒हम् । पय॑स्वन्तम् । च॒कार॑ । धा॒न्य᳡म् । ब॒हु । स॒म्ऽभृत्वा॑ । नाम॑ । य: । दे॒व: । तम् । व॒यम् । ह॒वा॒म॒हे॒ । य:ऽय॑: । अय॑ज्वन: । गृ॒हे ॥२४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेदाहं पयस्वन्तं चकार धान्यं बहु। संभृत्वा नाम यो देवस्तं वयं हवामहे योयो अयज्वनो गृहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेद । अहम् । पयस्वन्तम् । चकार । धान्यम् । बहु । सम्ऽभृत्वा । नाम । य: । देव: । तम् । वयम् । हवामहे । य:ऽय: । अयज्वन: । गृहे ॥२४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १.(अहम्) = मैं (पयस्वन्तम्) = उस सारवाले देव को (वेद) = जानता हूँ। वह देव ही (धान्यम्) = व्रीहि यव आदि को (बहु चकार) = खूब उत्पन्न करते हैं। इस धान्य के द्वारा ही वे प्रभु सब प्राणियों का आप्यायन [वृद्धि] करते है। २. (संभृत्वा नाम) = संभरणशील नामक (यः देव:) = जो देव है (तं वयं हवामहे) = उसे हम पुकारते हैं। ये प्रभु सर्वत्र स्थित सार का संभरण करनेवाले हैं और (यः) = जो प्रभु (अयज्वनः) = अयज्ञशील पुरुष के (गृहे) = घर में (अय:) = अग्नि [fire] के समान है, उसमें स्थित  सब द्रव्यों को भस्म करनेवाले हैं।

    भावार्थ -

    प्रभु पयस्वान्' हैं-सारभूत पदार्थोंवाले हैं। प्रभु ही व्रीहि-यव आदि धान्यों को जन्म देते हैं। ये संभरणशील प्रभु अयज्ञशील पुरुष के गृह में अग्नि के समान दाहक हैं।

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