अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
सूक्त - भृगुः
देवता - वनस्पतिः, प्रजापतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - समृद्धि प्राप्ति सूक्त
शत॑हस्त स॒माह॑र॒ सह॑स्रहस्त॒ सं कि॑र। कृ॒तस्य॑ का॒र्य॑स्य चे॒ह स्फा॒तिं स॒माव॑ह ॥
स्वर सहित पद पाठशत॑ऽहस्त । स॒म्ऽआह॑र । सह॑स्रऽहस्त । सम् । कि॒र॒ । कृ॒तस्य॑ । का॒र्य᳡स्य । च॒ । इ॒ह । स्फा॒तिम् । स॒म्ऽआव॑ह ॥२४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
शतहस्त समाहर सहस्रहस्त सं किर। कृतस्य कार्यस्य चेह स्फातिं समावह ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽहस्त । सम्ऽआहर । सहस्रऽहस्त । सम् । किर । कृतस्य । कार्यस्य । च । इह । स्फातिम् । सम्ऽआवह ॥२४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
विषय - धन-धान्य की समृद्धि व कर्त्तव्य-कर्मों की स्फाति
पदार्थ -
१.हे (शतहस्त) = सैकड़ों हाथों से युक्त प्रभो! आप सैकड़ों हाथों से (समाहर) = हमारे लिए धन-धान्य प्राप्त कराईए। हे (सहस्त्रहस्त) = हज़ारों हाथोंवाले प्रभो! (संकिर) = हममें धनों को प्रेरित कीजिए [विक्षिप]।२. (च) = और इसप्रकार (इह) = इस जीवन में (कृतस्य कार्यस्य) = कर्त्तव्यभूत कार्यों की (स्फातिम्) = समृद्धि को (समावह) = दीजिए। हम धन-धान्य प्राप्त करके अपने कर्तव्य-कर्मों को ठीक रूप से करनेवाले बनें।
भावार्थ -
प्रभु हमें प्रभूत धन-धान्य प्राप्त कराएँ। पोषण की चिन्ता से रहित होकर हम अपने कर्त्तव्य-कर्मों को ठीक रूप से करनेवाले बनें।
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