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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 24

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 24/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृगुः देवता - वनस्पतिः, प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - समृद्धि प्राप्ति सूक्त

    उदुत्सं॑ श॒तधा॑रं स॒हस्र॑धार॒मक्षि॑तम्। ए॒वास्माके॒दं धा॒न्यं॑ स॒हस्र॑धार॒मक्षि॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । उत्स॑म् । श॒तऽधा॑रम् । स॒हस्र॑ऽधारम् । अक्षि॑तम् । ए॒व । अ॒स्माक॑ । इ॒दम् । धा॒न्य᳡म् । स॒हस्र॑ऽधारम् । अक्षि॑तम् ॥२४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदुत्सं शतधारं सहस्रधारमक्षितम्। एवास्माकेदं धान्यं सहस्रधारमक्षितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । उत्सम् । शतऽधारम् । सहस्रऽधारम् । अक्षितम् । एव । अस्माक । इदम् । धान्यम् । सहस्रऽधारम् । अक्षितम् ॥२४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. यहाँ गतमन्त्र से 'वृष्टे' शब्द की अनुवृत्ति है। [वृष्टे] वृष्टि होने पर (उत्सम) = जलोत्पत्ति सधान [निर्झर] (शतधारम्) = सैकड़ों (उदक) = धाराओं से युक्त होता हुआ तथा (सहस्त्रधारम्) = हजारों धाराओं का रूप धारण करता हुआ (अक्षितम्) = [न क्षितं यस्मात्] विनाश को दूर करनेवाला होकर (उद्) [भवति] = उद्भुत होता है। २. (एव) = इसीप्रकार (अस्माकम्) = हमारा (इदम् धान्यम्) = यह धान्य (सहस्त्रधारम्) = अपरिमित धाराओं से युक्त-बहुत प्रकार के उपायों से बढ़ा हुआ (अक्षितम्) = क्षयरहित हो। यह धान्य धारण करनेवाला हो, विनाश से बचानेवाला हो।

    भावार्थ -

    वृष्टि से सैकड़ों धाराओंवाले स्रोत फूट पड़ें और हमें सहस्रों का धारण करनेवाले धान्य प्राप्त हों।

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