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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 24

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 24/ मन्त्र 6
    सूक्त - भृगुः देवता - वनस्पतिः, प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - समृद्धि प्राप्ति सूक्त

    ति॒स्रो मात्रा॑ गन्ध॒र्वाणां॒ चत॑स्रो गृ॒हप॑त्न्याः। तासां॒ या स्फा॒ति॒मत्त॑मा॒ तया॑ त्वा॒भि मृ॑शामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्र: । मात्रा॑: । ग॒न्ध॒र्वाणा॑म् । चत॑स्र: । गृ॒हऽप॑त्न्या: । तासा॑म् । या । स्फा॒ति॒मत्ऽत॑मा । तया॑ । त्वा॒ । अ॒भि । मृ॒शा॒म॒सि॒ ॥२४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो मात्रा गन्धर्वाणां चतस्रो गृहपत्न्याः। तासां या स्फातिमत्तमा तया त्वाभि मृशामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्र: । मात्रा: । गन्धर्वाणाम् । चतस्र: । गृहऽपत्न्या: । तासाम् । या । स्फातिमत्ऽतमा । तया । त्वा । अभि । मृशामसि ॥२४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. अर्जित धन-धान्य में से (तिस्त्रः मात्रा) = तीन अंश (गन्धर्वाणाम्) = ज्ञान को धारण करनेवाले के हों, अर्थात् धन के तीन अंश ज्ञान-प्राप्ति में व्ययित [खर्च] हों। बच्चों के शिक्षण, पुस्तकों के संग्रह व पाठशाला के लिए दान आदि कार्यों में धन के तीन अंशों का विनियोग किया जाए २. (चतस्त्र:) = धन की चार मात्राएँ (गृहपल्या:) = गृहपत्नी की हों। इन्हें वह घर के आवश्यक अन्न-वस्त्र आदि के जुटाने में प्रयुक्त करेगी। ३. (तासाम्) = उन मात्राओं में या जो (स्फातिमत्तमा) = अतिशयेन वृद्धि से युक्त है-राष्ट्र-वृद्धि का कारण बनती है (तया) = उस कला से (त्वा अभिमशामसि) = तुझे छूते हैं। धन की इस आठवीं कला को राजा के लिए देते हैं, जिसके द्वारा वह राष्ट्रवृद्धि के कार्यों को करनेवाला होता है।

    भावार्थ -

    धन को हम आठ भागों में बाँटें, तीन अंशों का शिक्षा व ज्ञानवृद्धि में व्यय करें, चार अंशों को घर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तथा एक अंश को राजा के लिए कर रूप में दें, जिससे राष्ट्र की वृद्धि ठीक रूप से हो सके।

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