अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
वी॑ मे द्यावा॑पृथि॒वी इ॒तो वि पन्था॑नो॒ दिशं॑दिशम्। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥
स्वर सहित पद पाठवि । इ॒मे इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । इ॒त: । वि । पन्था॑न: । दिश॑म्ऽदिशम् । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वी मे द्यावापृथिवी इतो वि पन्थानो दिशंदिशम्। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥
स्वर रहित पद पाठवि । इमे इति । द्यावापृथिवी इति । इत: । वि । पन्थान: । दिशम्ऽदिशम् । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
विषय - - पापों से इतना दूर जितना कि धुलोक पृथ्विीलोक से
पदार्थ -
१. परिदृश्यमान (इमे) = ये (द्यावापृथिवी) = युलोक व पृथिवीलोक (वि इत:) = स्वभावतः अलग अलग ही हैं। इसीप्रकार मैं भी पाप से उतना ही दूर होऊँ जितना कि धुलोक पृथ्विीलोक से। २. (दिशं दिशम्) = एक ग्राम से प्रत्येक दिशा में जाते हुए (पन्थान:) = मार्ग (वि) = स्वभावतः ही विगत व पृथगवस्थान होते हैं, इसीप्रकार मैं भी पापों से भिन्न मार्गवाला होता हूँ। मैं पापों से पृथक् होता है, रोगों से पृथक् होता हूँ और दीर्घजीवन से संगत होता हूँ।
भावार्थ -
पापों से मैं इतनी दूर होऊँ जितना कि धुलोक पृथिवीलोक से। पापों व रोगों का तथा मेरा मार्ग भिन्न-भिन्न दिशाओं में हो। इसप्रकार मेरा जीवन दीर्घ व उत्कृष्ट हो।
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