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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त

    आयु॑ष्मतामायु॒ष्कृतां॑ प्रा॒णेन॑ जीव॒ मा मृ॑थाः। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आयु॑ष्मताम् । आ॒यु॒:ऽकृता॑म् । प्रा॒णेन॑ । जी॒व॒ । मा । मृ॒था॒: । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुष्मतामायुष्कृतां प्राणेन जीव मा मृथाः। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आयुष्मताम् । आयु:ऽकृताम् । प्राणेन । जीव । मा । मृथा: । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. हे माणवक [बालक]! तू (आयुष्मताम्) = प्रशस्त जीवनवाले (आयुष्कृताम्) = दीर्घजीवन को उत्पन्न करनेवाले लोगों के (प्राणेन) = प्राण से जीव-जीवन को धारण कर, (मा, मृथा:) = तू मृत मत हो। २. मैं भी इन आयुष्मान, आयुष्कृत पुरुषों के समान प्राणशकि को उत्पन्न करता हुआ सब पापों व रोगों से पृथक् होऊँ और उत्कृष्ट दीर्घजीवन को प्राप्त करूँ।

    भावार्थ -

    हम आयुष्मान्, निष्पाप, नीरोग और दीर्घजीवनवाले बनें, दीर्घजीवन के साधनों का अनुष्ठान करें।

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