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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - पाप्महा, अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त

    वि दे॒वा ज॒रसा॑वृत॒न्वि त्वम॑ग्ने॒ अरा॑त्या। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । दे॒वा: । ज॒रसा॑ । अ॒वृ॒त॒न् । वि । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । अरा॑त्या । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि देवा जरसावृतन्वि त्वमग्ने अरात्या। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । देवा: । जरसा । अवृतन् । वि । त्वम् । अग्ने । अरात्या । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (जरसा) = जीर्णता से (वि अवृतन्) = व्यावृत्त होते हैं-दूर रहते हैं। (अग्ने) = हे अग्रणी प्रभो! (त्वम्) = आप (अरात्या) = अदान से सदा दूर हैं। आप सदा देनेवाले होते हैं। २. (अहम्) = मैं (सर्वेण) = सब (पाप्मना) = पापों से (वि) = दूर रहूँ, परिणामत: (यक्ष्मेण वि) = रोगों से भी दूर होता हूँ और (आयुषा सम्) = उत्कृष्ट दीर्घजीवन से संयुक्त होता है।

     

    भावार्थ -

    हम देव बनकर जीर्णता से दूर रहें। प्रभु की उपासना करते हुए अदानवृत्ति से दूर रहें। पापों व रोगों से रहित होकर उत्कृष्ट दीर्घजीवन को प्राप्त करें। वस्तुतः जीर्णता व अदानशीलता ही पापों व रोगों का कारण बनकर जीवन के हास का कारण बनते हैं।

     

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