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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - देवगणः, सूर्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त

    प्रा॒णेन॑ वि॒श्वतो॑वीर्यं दे॒वाः सूर्यं॒ समै॑रयन्। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णेन॑ । वि॒श्वत॑:ऽवीर्यम् । दे॒वा: । सूर्य॑म् । सम् । ऐ॒र॒य॒न् । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणेन विश्वतोवीर्यं देवाः सूर्यं समैरयन्। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणेन । विश्वत:ऽवीर्यम् । देवा: । सूर्यम् । सम् । ऐरयन् । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (विश्वतो वीर्यम्) = सब सामों से युक्त-सारे प्राणदायी तत्त्वों से युक्त (सूर्यम्) = सूर्य को (प्राणेन समैरयन्) = अपने प्राण के साथ सम्प्रेरित करते हैं। इसीप्रकार मैं पापों व रोगों से दूर होकर अपने को उत्कृष्ट दीर्घजीवन से सङ्गत करता हूँ। २. वस्तुतः सूर्य के सम्पर्क में जीवन बिताना पापों व रोगों से पार्थक्य का तथा उत्कृष्ट दीर्घजीवन से सम्पर्क का साधन बनता है।

    भावार्थ -

    मैं सूर्य के सम्पर्क में रहता हुआ अपने में प्राणशक्ति का सञ्चार करूँ और निष्पाप, नीरोग व दीर्घजीवन प्राप्त करूँ।

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