Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 31

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अग्निः, इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त

    अ॒ग्निः प्रा॒णान्त्सं द॑धाति च॒न्द्रः प्रा॒णेन॒ संहि॑तः। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि: । प्रा॒णान् । सम् । द॒धा॒ति॒ । च॒न्द्र: । प्रा॒णेन॑ । सम्ऽहि॑त:। वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः प्राणान्त्सं दधाति चन्द्रः प्राणेन संहितः। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि: । प्राणान् । सम् । दधाति । चन्द्र: । प्राणेन । सम्ऽहित:। वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (अग्नि:) = भोजन के पाचन का हेतुभूत जाइराग्नि (प्राणान्) = चक्षु आदि इन्द्रियों को (संदधाति) = संश्लिष्ट, स्वस्थ व कार्यसमर्थ करता है। (चन्द्रः) = [चन्द्रमा मनो भूत्वा०] मन (प्राणेन संहित:) = प्राण के संयम से संहित [एकान] होता है। इसीप्रकार मैं पाप व रोग से पृथक् होकर उत्कृष्ट आयुष्य से संहित होऊँ। २. वस्तुत: जाठराग्नि का ठीक रहना और मन का न भटकना ही पापों व रोगों से पार्थक्य का साधन बनता है तथा उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ -

    मैं जाठराग्नि को ठीक रखता हुआ सब इन्द्रियों को ठीक रक्खू तथा प्राण-साधना द्वारा मन को एकाग्र करनेवाला बनूं। इसप्रकार मैं निष्पाप, नीरोग व दीर्घजीवनवाला बनूं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top