अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
यदा॑सु॒तेः क्रि॒यमा॑णायाः क्षेत्रि॒यं त्वा॑ व्यान॒शे। वेदा॒हं तस्य॑ भेष॒जं क्षे॑त्रि॒यं ना॑शयामि॒ त्वत् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । आ॒ऽसु॒ते: । क्रि॒यमा॑णाया: । क्षे॒त्रि॒यम् । त्वा॒ । वि॒ऽआ॒न॒शे । वेद॑ । अ॒हम् । तस्य॑ । भे॒ष॒जम् । क्षे॒त्रि॒यम् । ना॒श॒या॒मि॒ । त्वत् ॥७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदासुतेः क्रियमाणायाः क्षेत्रियं त्वा व्यानशे। वेदाहं तस्य भेषजं क्षेत्रियं नाशयामि त्वत् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । आऽसुते: । क्रियमाणाया: । क्षेत्रियम् । त्वा । विऽआनशे । वेद । अहम् । तस्य । भेषजम् । क्षेत्रियम् । नाशयामि । त्वत् ॥७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
विषय - विक्रियमाण आसुति से क्षेत्रिय रोग
पदार्थ -
१. वैद्य रोगी से कहता है कि (क्रियामाणाया:) = [विक्रियमाणायाः] कुछ विकृत-से हो जानेवाले (आसुते:) = अन्न-रस से (यत्) = जो (क्षेत्रियम्) = क्षेत्रिय रोग (त्वा व्यानशे) = तुझे व्याप्त हो गया है, (अहम्) = मैं (तस्य) = उसके (भेषजम) = औषध को वेद-जानता है और अभी उस (क्षेत्रियम्) = क्षेत्रिय रोग को (त्वत् नाशयामि) = तेरे शरीर से पृथक् कर देता हूँ-इस रोग को अभी दूर किये देता हूँ। २. अन्न-रसों के विकार से ही क्षेत्रिय रोग उत्पन्न होते हैं। उनके उत्पन्न हो जाने पर वैद्य रोगी को आश्वासन देते हुए कहता है कि तू घबरा नहीं, मैं तेरे रोग को अभी दूर किये देता हूँ।
भावार्थ -
विकृत अन्न-रस क्षेत्रिय रोगों को उत्पन्न कर देता है। समझदार वैद्य रोगी को आश्वासन देता हुआ समुचित औषध-प्रयोग से उसे स्वस्थ कर लेता है।
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