अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 7
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
अ॑पवा॒से नक्ष॑त्राणामपवा॒स उ॒षसा॑मु॒त। अपा॒स्मत्सर्वं॑ दुर्भू॒तमप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प॒ऽवा॒से । नक्ष॑त्राणाम् । अ॒प॒ऽवा॒से । उ॒षसा॑म् । उ॒त । अप॑ । अ॒स्मत् । सर्व॑म् । दु॒:ऽभू॒तम् । अप॑ । क्षे॒त्रि॒यम् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अपवासे नक्षत्राणामपवास उषसामुत। अपास्मत्सर्वं दुर्भूतमप क्षेत्रियमुच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठअपऽवासे । नक्षत्राणाम् । अपऽवासे । उषसाम् । उत । अप । अस्मत् । सर्वम् । दु:ऽभूतम् । अप । क्षेत्रियम् । उच्छतु ॥७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 7
विषय - प्रात: स्नानादि से रोग-नाश
पदार्थ -
१. (नक्षत्राणाम् अपवासे) = नक्षत्रों के अपगमनकाल में, अर्थात् उषा के आरम्भ में (उत) = अथवा (उषसाम्) = प्रतिदिन उषाओं के (अपवासे) = अपगमन के समय, अर्थात् प्रात:काल, उस समय किये जानेवाले स्नानादि के द्वारा (सर्वम्) = सारा (दुर्भूतम्) = रोग का निदानभूत दुष्कृत (अस्मत्) = हमसे (अप उच्छतु) = दूर हो जाए और प्रतिदिन इसप्रकार करने से (क्षेत्रियम्) = कुष्ठ, अपस्मार आदि क्षेत्रिय रोग भी (अप) = हमसे दूर हो जाए।
भावार्थ -
हम तारों के अस्त होते ही बहुत सवेरे-सवेरे स्नान आदि क्रियाओं को सम्पन्न करने के द्वारा 'दुर्भूत' को दूर करते हुए क्षेत्रिय' रोगों को भी दूर करने में समर्थ हों।
विशेष -
अगले सूक्त का ऋषि अथर्वा है-न डाँवाडोल होनेवाला [न थर्वति] अथवा 'अथ अर्वाड' अपने अन्दर देखनेवाला और परिणामतः औरों के दोषों को न देखकर अपने दोषों को दूर करनेवाला। यह प्रार्थना करता है कि -