अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - पृथिवी, वरुणः, वायुः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रधारण सूक्त
आ या॑तु मि॒त्र ऋ॒तुभिः॒ कल्प॑मानः संवे॒शय॑न्पृथि॒वीमु॒स्रिया॑भिः। अथा॒स्मभ्यं॒ वरु॑णो वा॒युर॒ग्निर्बृ॒हद्रा॒ष्ट्रं सं॑वे॒श्यं॑ दधातु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒तु॒ । मि॒त्र: । ऋ॒तुऽभि॑: । कल्प॑मान: । स॒म्ऽवे॒शय॑न् । पृ॒थि॒वीम् । उ॒स्रिया॑भि: । अथ॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । वरु॑ण: । वा॒यु: । अ॒ग्नि: । बृहत् । रा॒ष्ट्रम् । स॒म्ऽवे॒श्य᳡म् । द॒धा॒तु॒ ॥८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यातु मित्र ऋतुभिः कल्पमानः संवेशयन्पृथिवीमुस्रियाभिः। अथास्मभ्यं वरुणो वायुरग्निर्बृहद्राष्ट्रं संवेश्यं दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यातु । मित्र: । ऋतुऽभि: । कल्पमान: । सम्ऽवेशयन् । पृथिवीम् । उस्रियाभि: । अथ । अस्मभ्यम् । वरुण: । वायु: । अग्नि: । बृहत् । राष्ट्रम् । सम्ऽवेश्यम् । दधातु ॥८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
विषय - मित्र, वरुण, वायु, अग्नि की अनुकूलता
पदार्थ -
१. (मित्रः) = रोगों से रक्षा करनेवाला यह सूर्य (आयातु) = हमें प्राप्त हो। (ऋतुभि:) = वसन्त आदि ऋतुओं के क्रमश: आने से (कल्पमान:) = हमारी आयु को दीर्घ करने में समर्थ होता हुआ तथा (उस्त्रियाभि:) = अपनी किरणों से (पृथिवीम्) = इस विस्तीर्ण भूमि को (संवेशयन्)-व्याप्त करता हुआ यह सूर्य आये। २. (अथ) = अब (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (वरुणः) = जलों का अधिष्ठातृदेव वरुण, (वायु:) = अन्तरिक्षस्थ देवों का मुखिया वायु और (अग्नि:) = पृथिवीस्थ देवों का अग्रणी यह अग्नि (संवेश्यम्) = सम्यक् अवस्थान के योग्य (बृहत्) = विशाल (राष्ट्रम्) = राष्ट्र को (दधातु) = धारण करे । सब देवों की अनुकूलता से यह राष्ट्र आधिदैविक आपत्तियों से शून्य हो।
भावार्थ -
हमारे राष्ट्र में सूर्य की किरणे पृथिवी को व्याप्त करती हुई सब ऋतुओं को ठीक से लानेवाली हौं। यहाँ वरुण, वायु व अग्निदेवों की अनुकूलता हो और हमारा राष्ट्र आधिदैविक आपत्तियों से शून्य हो।
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