Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 8

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - सोमः, सविता, आदित्यः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रधारण सूक्त

    हु॒वे सोमं॑ सवि॒तारं॒ नमो॑भि॒र्विश्वा॑नादि॒त्याँ अ॒हमु॑त्तर॒त्वे। अ॒यम॒ग्निर्दी॑दायद्दी॒र्घमे॒व स॑जा॒तैरि॒द्धोऽप्र॑तिब्रुवद्भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हु॒वे । सोम॑म् । स॒वि॒तार॑म् । नम॑:ऽभि: । विश्वा॑न् । आ॒दि॒त्यान् । अ॒हम् । उ॒त्त॒र॒ऽत्वे । अ॒यम् । अ॒ग्नि: । दी॒द॒य॒त् । दी॒र्घम् । ए॒व । स॒ऽजा॒तै: । इ॒ध्द: । अप्र॑तिब्रु॒वत्ऽभि: ॥८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हुवे सोमं सवितारं नमोभिर्विश्वानादित्याँ अहमुत्तरत्वे। अयमग्निर्दीदायद्दीर्घमेव सजातैरिद्धोऽप्रतिब्रुवद्भिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हुवे । सोमम् । सवितारम् । नम:ऽभि: । विश्वान् । आदित्यान् । अहम् । उत्तरऽत्वे । अयम् । अग्नि: । दीदयत् । दीर्घम् । एव । सऽजातै: । इध्द: । अप्रतिब्रुवत्ऽभि: ॥८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. राजा कहता है कि (अहम्) = मैं (उत्तरत्वे) = श्रेष्ठता के निमित्त (सवितारम्) = संसार के उत्पादक व सबके प्रेरक (सोमम्) = शान्त प्रभु को (नमोभि:) = नमस्कारों के द्वारा (हुवे) = पुकारता हूँ तथा (विश्वान्) = सब (आदित्यान्) = आदित्यों को अच्छाइयों का आदान करनेवालों को पुकारता हूँ। 'सोम, सविता व आदित्यों का आराधन करता हुआ मैं भी शान्त, निर्माण के कार्यों में लगा हुआ व अच्छाइयों का आदान करनेवाला बनूं। यही तो श्रेष्ठता की प्राप्ति का मार्ग है। २. (अयम् अग्रि:) = यह अग्नि (दीर्घम् एव) = दीर्घकाल तक ही (दीदायत्) = दीस हो। राष्ट्र में प्रत्येक घर में अग्निहोत्र हो, कोई भी व्यक्ति अनाहितानि न हो। मैं भी (अप्रतिबवद्धिः) = कभी विरोध में न बोलते हुए (सजातैः) = सजात लोगों से (इन्द्धः) = दीप्त किया जाऊँ, सब सजात लोगों को अपने साथ पाकर चमकू उदूं।

    भावार्थ -

    राजा चाहता है कि प्रभु को 'सोम, सविता व आदित्य' के रूप में स्मरण करता हुआ मैं 'शान्त, निर्माता व अच्छाइयों का ग्रहण करनेवाला' बनूं। राष्ट्र में प्रत्येक घर में अग्निहोत्र की अग्नि चमके। उसी प्रकार अप्रतिकूलतावाले सजात लोगों में मैं भी चमकूँ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top