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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - चतुष्पदा विराद्बृहतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रधारण सूक्त

    इ॒हेद॑साथ॒ न प॒रो ग॑मा॒थेर्यो॑ गो॒पाः पु॑ष्ट॒पति॑र्व॒ आज॑त्। अ॒स्मै कामा॒योप॑ का॒मिनी॒र्विश्वे॑ वो दे॒वा उ॑प॒संय॑न्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । इत् । अ॒सा॒थ॒ । न । प॒र: । ग॒मा॒थ॒ । इर्य॑: । गो॒पा: । पुष्ट॒ऽपति॑: । व॒: । आ । अ॒ज॒त् । अ॒स्मै । कामा॑य । उप॑ । का॒मिनी॑: । विश्वे॑ । व॒: । दे॒वा: । उ॒प॒ऽसंय॑न्तु ॥८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेदसाथ न परो गमाथेर्यो गोपाः पुष्टपतिर्व आजत्। अस्मै कामायोप कामिनीर्विश्वे वो देवा उपसंयन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । इत् । असाथ । न । पर: । गमाथ । इर्य: । गोपा: । पुष्टऽपति: । व: । आ । अजत् । अस्मै । कामाय । उप । कामिनी: । विश्वे । व: । देवा: । उपऽसंयन्तु ॥८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. राजा राष्ट्र में सब गृहपत्नियों को प्रेरणा देता है कि तुम (इह इत् असाथ) = यहाँ घर पर ही रहो, (न पर: गमाथ) = घर से दूर न जाओ। यहाँ घरों में (इर्यः) = उत्तम अन्नोंवाला [इरा अन्नम्], (गोपा:) = गौओं का पालन करनेवाला, (पुष्टपति:) = पोषण का स्वामी (व:) = तुम्हें (आजत) = प्रेरित करता है, अर्थात् तुम्हारे पति 'इर्य, गोपा व पुष्टपति' हों। तुम ऐसे घर में ही बनी रहो, घर को छोड़कर जाने का कभी स्वप्न भी न लो। २. तुम (अस्मै कामाय) = इस तुम्हारी कामनावाले [कामयमानाय] पति के (उप) = समीप ही (कामिनी:) = पति की कामनावाली होओ। यहाँ घर में सदाचरण से जीवन यापन करती हुई (व:) = तुम्हें (विश्वेदेवा:) = सब दिव्य गुण (उपसंयन्तु) = प्राप्त हों और देववृत्ति के पुरुष ही तुम्हें अतिथिरूपेण प्राप्त हों।

    भावार्थ -

    राजा चाहता है कि राष्ट्र में पत्नियाँ घरों को छोड़कर जाने का स्वप्न भी न लें। प्रियपति के प्रति प्रेमवाली हों। पति घर में अन्न की कमी न होने दें, गौओं को अवश्य रक्खें, घर में सभी के पोषण का ध्यान करें। घरों में देवृत्ति के पुरुष ही अतिथिरूपेण प्राप्त हों। सब घरों की उत्तमता पर ही राष्ट्र की उत्तमता निर्भर होती है।

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