अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
सूक्त - ऋभु
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - त्रिपदा गायत्री
सूक्तम् - रोहिणी वनस्पति सूक्त
रोह॑ण्यसि॒ रोह॑ण्य॒स्थ्नश्छि॒न्नस्य॒ रोह॑णी। रो॒हये॒दम॑रुन्धति ॥
स्वर सहित पद पाठरोह॑णी । अ॒सि॒ । रोह॑णी ।अ॒स्थ्न: । छि॒न्नस्य॑ । रोह॑णी । रो॒हय॑ । इ॒दम् । अ॒रु॒न्ध॒ती॒ ॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रोहण्यसि रोहण्यस्थ्नश्छिन्नस्य रोहणी। रोहयेदमरुन्धति ॥
स्वर रहित पद पाठरोहणी । असि । रोहणी ।अस्थ्न: । छिन्नस्य । रोहणी । रोहय । इदम् । अरुन्धती ॥१२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
विषय - रोहणी
पदार्थ -
१. (रोहणी असि) = हे ओषधे! तू रोहणी है-घाव को भर देनेवाली है। (छिन्नस्य अस्थन:) = टूटी हुई हड्डी को भी (रोहणी) = पूर्ण कर देनेवाली है। २. हे (अरुन्धति) = दूसरों से अभिभूत न होनेवाली अथवा आरोधनशील-घाव भरने की प्रगति को ठीक से चालू रखनेवाली रोहणि! तु (इदं रोहय) = इस भग्न व सुत-रक्त अङ्ग को प्ररूढ़ कर दे-फिर से ठीक-ठीक कर दे, इसे अव्रण बना दे।
भावार्थ -
हम रोहणी ओषधि के प्रयोग से भग्न अस्थि को भी फिर से ठीक करके शरीर अस्थि को ठीक करनेवाले हों।
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