अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
यदि॑ क॒र्तं प॑ति॒त्वा सं॑श॒श्रे यदि॒ वाश्मा॒ प्रहृ॑तो ज॒घान॑। ऋ॒भू रथ॑स्ये॒वाङ्गा॑नि॒ सं द॑ध॒त्परु॑षा॒ परुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । क॒र्तम् । प॒ति॒त्वा । स॒म्ऽश॒श्रे । यदि॑ । वा॒ । अश्मा॑ । प्रऽहृ॑त: । ज॒घान॑ । ऋ॒भु: । र॑थस्यऽइव । अङ्गा॑नि । सम् । द॒ध॒त् । परु॑षा । परु॑: ॥१२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि कर्तं पतित्वा संशश्रे यदि वाश्मा प्रहृतो जघान। ऋभू रथस्येवाङ्गानि सं दधत्परुषा परुः ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । कर्तम् । पतित्वा । सम्ऽशश्रे । यदि । वा । अश्मा । प्रऽहृत: । जघान । ऋभु: । रथस्यऽइव । अङ्गानि । सम् । दधत् । परुषा । परु: ॥१२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 12; मन्त्र » 7
विषय - सब रथाङ्गों का ठीक होना
पदार्थ -
१. यदि (कर्तम्) = यदि किसी छेदक आयुध ने (पतित्वा) = गिरकर (संशश्रे) = हिंसित किया है, (यदि वा) = अथवा किसी के द्वारा (अश्मा) = पाषाण [पत्थर] (प्रहृतः) = फेंका हुआ (जघान) = पुरुष को हिंसित करता है तो इस रोहणी औषध का सामर्थ्य (परु:) = पर्व को (परुषा) = दूसरे पर्व से (सन्दधत्) = संहित कर दे-फिर से घाव को ठीक करके सब पयों को ठीक से संश्लिष्ट कर दे। २. यह ओषधि सब अङ्गों को इसप्रकार संश्लिष्ट कर दे (इव) = जैसेकि (ऋभुः) = ज्ञानी शिल्पी (रथस्य अंगानि) = रथ के अंगों को संश्लिष्ट कर देता है। संश्लिष्ट [जुड़ा] हुआ रथ ठीक गतिवाला होता है, इसीप्रकार यह आहत पुरुष भी अब संश्लिष्ट-अङ्ग होकर कार्यों में शीघ्रता से गतिवाला हो।
भावार्थ -
यदि किसी आयुध या पत्थर से घाव हो गया है तो यह रोहणी ओषधि उसे ठीक कर दे। इसके प्रयोग से ठीक हुआ-हुआ शरीर-रथ अपने कार्यों में व्यास हो।
विशेष -
नीरोग हुआ-हुआ यह पुरुष सब अङ्गों में शान्तिवाला हुआ-हुआ 'शन्ताति' कहलाता है। यह नीरोगता के लिए ही प्रार्थना करता हुआ कहता है -