अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 9
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामौषधिः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
यो अ॒न्तरि॑क्षेण॒ पत॑ति॒ दिवं॒ यश्चा॑ति॒सर्प॑ति। भूमिं॒ यो मन्य॑ते ना॒थं तं पि॑शा॒चं प्र द॑र्शय ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒न्तरि॑क्षेण । पत॑ति । दिव॑म् । य: । च॒ । अ॒ति॒ऽसर्प॑ति । भूमि॑म् । य: । मन्य॑ते । ना॒थम् । तम् । पि॒शा॒चम् । प्र । द॒र्श॒य॒ ॥२०.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अन्तरिक्षेण पतति दिवं यश्चातिसर्पति। भूमिं यो मन्यते नाथं तं पिशाचं प्र दर्शय ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अन्तरिक्षेण । पतति । दिवम् । य: । च । अतिऽसर्पति । भूमिम् । य: । मन्यते । नाथम् । तम् । पिशाचम् । प्र । दर्शय ॥२०.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 9
विषय - 'अन्तरिक्ष, धुलोक व भूमि' पर आधिपत्यवाला पिशाच
पदार्थ -
१. (य:) = जो राक्षसीभाव (अन्तरिक्षेण पतति) = हदयान्तरिक्ष से गतिवाला होता है-जो हृदय में उत्पन्न होता है, (य: च) = और जो (दिवम् अतिसर्पति) = मस्तिष्करूप धुलोक में अतिशयेन गति करता है, (य:) = जो (भूमिम्) = इस शरीररूपी पृथिवीलोक का (नाथम्) = अपने को स्वामी (मन्यते) = मानता है-जो शरीर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है, (तम्) = हमारा मांस ही खा जानेवाले राक्षसीभाव को हे वेदमात: ! तू (प्रदर्शय) = दिखला। २. हृदय में उत्पन्न हुआ-हुआ राक्षसीभाव मस्तिष्क में अतिशयेन गतिवाला होता है, मस्तिष्क में वही भाव चक्कर काटने लगता है। इस शरीर पर उसका आतिपत्य-सा स्थापित हो जाता है। हम वेद के द्वारा इन भावों के स्वरूप को समझें और इनसे बचें।
भावार्थ -
अशुभवासना हदय में उत्पन्न होकर मस्तिक में घर कर लेती है और शरीर पर आधि पत्य स्थापित कर लेती है। इसके स्वरूप को समझकर हम इससे बचने के लिए यत्नशील हों।
विशेष -
पैशाचिकभावों को दूर करने के लिए आवश्यक है कि हम आहार को सात्त्विक करें। सर्वाधिक सात्विक आहार 'गोदुग्ध' है, अत: अगले सूक्त में 'गाव:'ही देवता [वय॑विषय] है और गोदुग्ध-सेवन से पवित्र बुद्धिवाला ज्ञानी 'ब्रह्मा ऋषि है (अथाष्टमः प्रपाठकः )|