अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 7
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामौषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
क॒श्यप॑स्य॒ चक्षु॑रसि शु॒न्याश्च॑ चतुर॒क्ष्याः। वी॒ध्रे सूर्य॑मिव॒ सर्प॑न्तं॒ मा पि॑शा॒चं ति॒रस्क॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठक॒श्यप॑स्य । चक्षु॑: । अ॒सि॒ । शु॒न्या: । च॒ । च॒तु॒:ऽअ॒क्ष्या: । वी॒ध्रे । सूर्य॑म्ऽइव । सर्प॑न्तम् । मा । पि॒शा॒चम् । ति॒र: । क॒र॒: ॥२०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
कश्यपस्य चक्षुरसि शुन्याश्च चतुरक्ष्याः। वीध्रे सूर्यमिव सर्पन्तं मा पिशाचं तिरस्करः ॥
स्वर रहित पद पाठकश्यपस्य । चक्षु: । असि । शुन्या: । च । चतु:ऽअक्ष्या: । वीध्रे । सूर्यम्ऽइव । सर्पन्तम् । मा । पिशाचम् । तिर: । कर: ॥२०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 7
विषय - 'कश्यप व शुनि' की आँख
पदार्थ -
१. हे वेदवाणि! तू (कश्यपस्य) = ज्ञानी पुरुष की (चक्षुः असि) = आँख है। एक ज्ञानी पुरुष तेरे द्वारा ही अपने (कर्तव्य) = कर्मों को देख पाता है (च) = और (चतः अक्ष्या:) = चार आँखोंवाली, अर्थात् 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष'-रूप चारों पुरुषार्थों को देखनेवाली (शुन्या:) = [शुन गती] विषयों के प्रकाशन में गतिवाली बुद्धि [सरमा-देवशुनी] की तू आँख है। यह बुद्धि तेरे द्वारा ही सब धर्मादि को देख पाती है। २. हे वेदवाणि! तु (व्रीधे) = [विविधम् इन्धन्ते दीप्यन्ते अस्मिन ग्रहनक्षत्रादीनि इति] अन्तरिक्ष में (सर्पन्तं सूर्यम् इव) = गति करते हुए इस सूर्य की भाँति हमारे हृदयान्तरिक्षों में गति करते हुए (पिशाचम्) = मांस को खा जानेवाले राक्षसीभावों को (मा तिरस्कर:) = मत छिपानेवाली हो, अर्थात् तेरे द्वारा इन राक्षसी भावों को हम दूर करनेवाले हों।
भावार्थ -
वेदमाता ज्ञानी पुरुष की बुद्धि की आँख के समान है। इसके द्वारा हम हृदयान्तरिक्ष में छिपकर गति करनेवाले राक्षसीभावों को दूर कर पाते हैं।
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