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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 6
    सूक्त - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त

    द॒र्शय॑ मा यातु॒धाना॑न्द॒र्शय॑ यातुधा॒न्यः॑। पि॑शा॒चान्त्सर्वा॑न्दर्श॒येति॒ त्वा र॑भ ओषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒र्शय॑ । मा॒ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । द॒र्शय॑ । या॒तु॒ऽधा॒न्य᳡: । पि॒शा॒चान् । सर्वा॑न् । द॒र्श॒य॒ । इति॑ । त्वा॒ । आ । र॒भे॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दर्शय मा यातुधानान्दर्शय यातुधान्यः। पिशाचान्त्सर्वान्दर्शयेति त्वा रभ ओषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दर्शय । मा । यातुऽधानान् । दर्शय । यातुऽधान्य: । पिशाचान् । सर्वान् । दर्शय । इति । त्वा । आ । रभे । ओषधे ॥२०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. है (ओषधे) = दोषों को दहन करनेवाली वेदमातः । मैं (त्वा आरभे) = तेरा आश्रय करता हूँ, तुझे अपनाता हूँ। तू (सर्वान् पिशाचान्) = सब पिशाचों को-औरों का मांस खानेवालों को [पिशितम् अश्नन्ति] (दर्शय इति) = मुझे दिखला, इसलिए मैं तेरा आश्रय लेता हूँ। २. (मा) = मुझे (यातुधानान्) = पीड़ा को आहित करनेवालों को (दर्शय) = दिखा तथा (यातुधान्य:) = इन यातुधानों की पलियों को (दर्शय) = दिखा।

    भावार्थ -

    वेद द्वारा हम 'यातुधान, यातुधानी व पिशाचों' के लक्षणों को समझते हुए इनसे बचें।

    सूचना -

    शरीरस्थ कुछ रोगकृमि भी इसप्रकार के हैं, जो शरीर में पीड़ा के कारण बनते हैं। अन्य रोगकृमि मांस को खा जाते हैं और हमें अमांस [दुर्बल, emacited] कर देते हैं। वेद द्वारा इन्हें समझकर हम अपने को इनका शिकार होने से बचाएँ।

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