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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
    सूक्त - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - स्वराडनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त

    ति॒स्रो दिव॑स्ति॒स्रः पृ॑थि॒वीः षट्चे॒माः प्र॒दिशः॒ पृथ॑क्। त्वया॒हं सर्वा॑ भू॒तानि॒ पश्या॑नि देव्योषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्र: । दिव॑: । ति॒स्र: । पृ॒थि॒वी । षट् । च॒ । इ॒मा: । प्र॒ऽदिश॑: । पृथ॑क् । त्वया॑ । अ॒हम् । सर्वा॑ । भू॒तानि॑ । पश्या॑नि । दे॒वि॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो दिवस्तिस्रः पृथिवीः षट्चेमाः प्रदिशः पृथक्। त्वयाहं सर्वा भूतानि पश्यानि देव्योषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्र: । दिव: । तिस्र: । पृथिवी । षट् । च । इमा: । प्रऽदिश: । पृथक् । त्वया । अहम् । सर्वा । भूतानि । पश्यानि । देवि । ओषधे ॥२०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. यह वेदमाता दोषों का दहन करने के कारण 'ओषधि' है [उषु दाहे]। हे (ओषधे) = दोषों का दहन करनेवाली (देवि) = हमारे जीवनों को प्रकाशमय बनानेवाली वेदमातः! (त्वया) = तेरे द्वारा (अहम्) = मैं (सर्वा) = सब (भूतानि) = भूतों को-ब्रह्माण्ड के निर्माण में कारणभूत 'पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश' को (पश्यानि) = देखता हूँ-इनका ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करता हूँ। २. (तिस्त्र: दिव:) = धुलोक के 'उत्तम, मध्यम, अधम' तीनों क्षेत्रों को तथा तिनः (पृथिवी:) = पृथिवी के भी 'उत्तम, मध्यम, अधम' तीनों भागों को (च) = और (इमा:) = इन (षट्) = 'पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण ध्रुवा-ऊवा' नामक छह (प्रदिश:) = प्रकृष्ट दिशाओं को (पृथक्) = अलग-अलग करके विविक्तरूप में मैं इस वेदमाता के द्वारा देखनेवाला बनाता हूँ।

    भावार्थ -

    वेदमाता के द्वारा धुलोक व पृथिवीलोक के तीनों विभागों का तथा व्यापक छह दिशाओं का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त होता है।

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