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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः, व्याघ्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यो अ॒द्य स्ते॒न आय॑ति॒ स संपि॑ष्टो॒ अपा॑यति। प॒थाम॑पध्वं॒सेनै॒त्विन्द्रो॒ वज्रे॑ण हन्तु॒ तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒द्य । स्ते॒न: । आ॒ऽअय॑ति । स: । सम्ऽपि॑ष्ट: । अप॑ । अ॒य॒ति॒ । प॒थाम् । अ॒प॒ऽध्वं॒सेन॑ । ए॒तु॒ । इन्द्र॑: । वज्रे॑ण । ह॒न्तु॒ । तम् ॥३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अद्य स्तेन आयति स संपिष्टो अपायति। पथामपध्वंसेनैत्विन्द्रो वज्रेण हन्तु तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अद्य । स्तेन: । आऽअयति । स: । सम्ऽपिष्ट: । अप । अयति । पथाम् । अपऽध्वंसेन । एतु । इन्द्र: । वज्रेण । हन्तु । तम् ॥३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (अद्य) = आज (यः) = जो भी (स्तेन:) = चोर (आयति) = आता है, (स:) = वह (संपिष्टः) = सम्यक् पिसा हुआ-चूर्णीभूत-सा किया हुआ (अपायति) = दूर जाता है। चोर को सारा जनसमाज सामूहिकरूप से दण्डित करनेवाला हो, उन्हें कोई आश्रय देनेवाला न हो। २. जो कोई भी (पथाम्) = मार्गों के नियमों के (अपध्वंसेन) = बुरी तरह ध्वंस से-नियों के भंग से (एतु) = गति करे, (इन्द्र:) = राजा (तम्) = उसे (व्रजेण) = वज्र के द्वारा-बिनाशक शस्त्र के द्वारा (हन्तु) = नष्ट करे । नियमों को बुरी तरह तोड़नेवाले को राजा वध-दण्ड दें।

    भावार्थ -

    चोर को जनसमाज उचित दण्ड देता हुआ चोरी आदि से निरुत्साहित करे । सदा उलटे मार्ग से चलनेवाले को राजा वध-दण्ड दें।


     

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