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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
    सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त

    आभू॑त्या सह॒जा व॑ज्र सायक॒ सहो॑ बिभर्षि सहभूत॒ उत्त॑रम्। क्रत्वा॑ नो मन्यो स॒ह मे॒द्ये॑धि महाध॒नस्य॑ पुरुहूत सं॒सृजि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आऽभू॑त्या । स॒ह॒ऽजा: । व॒ज्र॒ । सा॒य॒क॒ । सह॑: । बि॒भ॒र्षि॒ । स॒ह॒ऽभू॒ते॒ । उत्ऽत॑रम् । क्रत्वा॑ । न॒: । म॒न्यो॒ इति॑ । स॒ह । मे॒दी । ए॒धि॒ । म॒हा॒ऽध॒नस्य॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । स॒म्ऽसृजि॑ ॥३१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आभूत्या सहजा वज्र सायक सहो बिभर्षि सहभूत उत्तरम्। क्रत्वा नो मन्यो सह मेद्येधि महाधनस्य पुरुहूत संसृजि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽभूत्या । सहऽजा: । वज्र । सायक । सह: । बिभर्षि । सहऽभूते । उत्ऽतरम् । क्रत्वा । न: । मन्यो इति । सह । मेदी । एधि । महाऽधनस्य । पुरुऽहूत । सम्ऽसृजि ॥३१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (आभूत्या) = सब कोशों में व्याप्त होनेवाली भूति [ऐश्वर्य] के (सहजा:) = साथ उत्पन्न होनेवाले ज्ञान के प्रकट होने पर अन्नमयकोश तेज से पूर्ण होता है, प्राणमय वीर्य से पूर्ण होता है, मनोमय ओज व बल से भर जाता है, विज्ञानमय तो इस मन्यु से युक्त होता ही है, आनन्दमय सहस से परिपूर्ण बनता है, (वज्रः) = [वज गतौ] गति को उत्पन्न करनेवाले ज्ञान से जीवन गतिमय होता है। (सायक) = [षोऽन्तकर्मणि] सब बुराइयों का अन्त करनेवाले ज्ञान से सब मलिनताएँ नष्ट हो जाती हैं। (सहभूते) = भूति [ऐश्वर्य] के साथ निवास करनेवाले ज्ञान ! तू (उत्तरंसह बिभर्षि) = उत्कृष्ट बल को धारण करता है। हे (मन्यो) = ज्ञान! तू (क्रत्वा सह) = यज्ञ आदि उत्तम कर्मों के साथ (नः मेदी एधि) = हमारे साथ स्नेह करनेवाला हो। हम ज्ञान प्राप्त करके यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले बनें। हे (पूरुहूत) = पालक व पूरक है पुकार जिसकी ऐसे ज्ञान! तू (महाधनस्य) = उत्कृष्ट ऐश्वर्य के (संसृजि) = निर्माण में हमसे [मेदी एधि] स्नेह करनेवाला हो! तुझे मित्र के रूप में पाकर हम उत्कृष्ट ऐश्वर्य का उत्पादन करनेवाले हों।

    भावार्थ -

    ज्ञान ही सब ऐश्वर्यों का मूल है। यह उत्कृष्ट बल देता है, यह हमें क्रियाशील बनाकर हमारा सच्चा मित्र होता है।

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