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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
    सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - जगती सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त

    संसृ॑ष्टं॒ धन॑मु॒भयं॑ स॒माकृ॑तम॒स्मभ्यं॑ धत्तां॒ वरु॑णश्च म॒न्युः। भियो॒ दधा॑ना॒ हृद॑येषु॒ शत्र॑वः॒ परा॑जितासो॒ अप॒ नि ल॑यन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽसृ॑ष्टम् । धन॑म् । उ॒भय॑म् । स॒म्ऽआकृ॑तम् ।अ॒स्मभ्य॑म् । ध॒त्ता॒म् । वरु॑ण: । च॒ । म॒न्यु: । भिय॑: । दधा॑ना: । हृद॑येषु । शत्र॑व: । परा॑जितास: । अप॑ । नि । ल॒य॒न्ता॒म् ॥३१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं धत्तां वरुणश्च मन्युः। भियो दधाना हृदयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽसृष्टम् । धनम् । उभयम् । सम्ऽआकृतम् ।अस्मभ्यम् । धत्ताम् । वरुण: । च । मन्यु: । भिय: । दधाना: । हृदयेषु । शत्रव: । पराजितास: । अप । नि । लयन्ताम् ॥३१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (मन्यः) = ज्ञान (च) = तथा (वरुण:) = ज्ञान के द्वारा सब बुराइयों का निवारण करनेवाले प्रभु (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (अभयम्) = ज्ञान व श्रद्धारूप उभयविध (धनम्) = धन को जोकि समाकृतम् सम्यक् उत्पन्न किया हुआ तथा संसष्टम्-परस्पर मिला हुआ है, उसे धत्ताम्-दें। हमारे जीवनों में ज्ञान व श्रद्धा का समन्वय हो। वस्तुतः "ठीक ज्ञान' श्रद्धा को उत्पन्न करता है, 'श्रद्धा' ज्ञान को। २. इसप्रकार हमारे मस्तिष्क व हृदय के परस्पर संगत हो जाने पर (शत्रवः) = काम आदि सब शत्र (हृदयेषु भियं दधाना:) = अपने हृदयों में भय को धारण करते हुए (पराजितासः) =  पराजित हुए-हुए (अपनिलयन्ताम्) = कहीं सुदूर निलीन हो जाएँ, हम इनसे आक्रान्त न हों।

    भावार्थ -

    ज्ञान के द्वारा प्रभु-दर्शन होने पर हमारे जीवनों में ज्ञान व श्रद्धा के धन का वह समन्वय होता है कि काम आदि सब शत्रु सुदूर विनष्ट हो जाते है।

    अगले सूक्त का ऋषि भी 'ब्रह्मास्कन्दः' ही है -

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