अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त
अ॒ग्निरि॑व मन्यो त्विषि॒तः स॑हस्व सेना॒नीर्नः॑ सहुरे हू॒त ए॑धि। ह॒त्वाय॒ शत्रू॒न्वि भ॑जस्व॒ वेद॒ ओजो॒ मिमा॑नो॒ वि मृधो॑ नुदस्व ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि:ऽइ॑व । म॒न्यो॒ इति॑ । त्वि॒षि॒त: । स॒ह॒स्व॒ । से॒ना॒ऽनी: । न॒: । स॒हु॒रे॒ । हू॒त: । ए॒धि॒ । ह॒त्वाय॑ । शत्रू॑न् । वि । भ॒ज॒स्व॒ । वेद॑: । ओेज॑: । मिमा॑न: । वि । मृध॑: । नु॒द॒स्व॒ ॥३१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निरिव मन्यो त्विषितः सहस्व सेनानीर्नः सहुरे हूत एधि। हत्वाय शत्रून्वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि:ऽइव । मन्यो इति । त्विषित: । सहस्व । सेनाऽनी: । न: । सहुरे । हूत: । एधि । हत्वाय । शत्रून् । वि । भजस्व । वेद: । ओेज: । मिमान: । वि । मृध: । नुदस्व ॥३१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
विषय - 'सेनापति' ज्ञान
पदार्थ -
१. हे (मन्यो) = ज्ञान ! (अग्निः इव) = अग्नि के समान (त्विषित:) = दीसिवाला होता हुआ तू (सहस्व) = हमारे शत्रुओं का पराभव कर। हे (सहुरे) = शत्रुओं का पराभव करनेवाले ज्ञान । (हूतः) = पुकारा गया तू (न:) = हमारा (सेनानी:) = सेनापति (एधि) = हो। ज्ञान ही वस्तुत: उन सब साधनों में मुख्य है जो वासनाओं का नाश करनेवाले हैं। २. (शत्रून्) = काम-क्रोध आदि सब शत्रुओं को (हत्याय) = नष्ट करके (वेदः) = जीवन-धन को (विभजस्व) = विशेषरूप से हमें प्राप्त करा। काम-क्रोध आदि से भरा जीवन जीवन ही प्रतीत नहीं होता। ज्ञान इन काम-क्रोध आदि को नष्ट करता है और हमारे लिए उत्कृष्ट जीवन-धन को पास कराता है। ३. (ओजः मिमान:) = हमारे जीवनों में ओजस्विता का निर्माण करते हुए (मृध:) = हिंसक शत्रुओं को (विनुदस्व) = विशेषरूप से दूर धकेल दे। ज्ञान हमें ओजस्वी बनाता है और काम आदि शत्रुओं के संहार के लिए समर्थ करता है।
भावार्थ -
ज्ञान हमारा सेनापति बनता है और इन्द्रियों, मन व बुद्धि आदि साधनों द्वारा शुत्रओं को नष्ट कर डालता है।
इस भाष्य को एडिट करें