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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त

    अ॑भा॒गः सन्नप॒ परे॑तो अस्मि॒ तव॒ क्रत्वा॑ तवि॒षस्य॑ प्रचेतः। तं त्वा॑ मन्यो अक्र॒तुर्जि॑हीडा॒हं स्वा त॒नूर्ब॑ल॒दावा॑ न॒ एहि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भा॒ग: । सन् । अप॑ । परा॑ऽइत: । अ॒स्मि॒ । तव॑ । क्रत्वा॑ । त॒वि॒षस्य॑ । प्र॒ऽचे॒त॒: । तम् । त्वा॒ । म॒न्यो॒ इति॑ । अ॒क्र॒तु: । जि॒ही॒ड॒ । अ॒हम् । स्वा । त॒नू: । ब॒ल॒ऽदा॑वा । न॒: । आ । इ॒हि॒ ॥३२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभागः सन्नप परेतो अस्मि तव क्रत्वा तविषस्य प्रचेतः। तं त्वा मन्यो अक्रतुर्जिहीडाहं स्वा तनूर्बलदावा न एहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभाग: । सन् । अप । पराऽइत: । अस्मि । तव । क्रत्वा । तविषस्य । प्रऽचेत: । तम् । त्वा । मन्यो इति । अक्रतु: । जिहीड । अहम् । स्वा । तनू: । बलऽदावा । न: । आ । इहि ॥३२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. हे (प्रचेत:) = प्रकृष्ट ज्ञान! (अभाग: सन्) = कुछ अल्प भाग्यवाला होता हुआ मैं (तविषस्य) = महान् शक्तिशाली (तव) = तेरे (क्रत्वा) = कर्म से, अर्थात् ज्ञान-साधक कर्मों से (अपपरेतः अस्मि) = दूर होता हुआ मार्ग से भटक गया हूँ। यह मेरे सौभाग्य की कमी है कि मैं ज्ञान-प्राप्ति के कर्मों में नहीं लगा रह सका। हे मन्यो-ज्ञान! (तं त्वा) = उस तुझसे (अक्रतुः) = अकर्मण्य होता हुआ मैं (जिहीड) = घृणा करता हूँ। आलस्य के कारण तेरे प्रति मेरी रुचि नहीं होती। २. परन्तु अब मैं समझता हूँ कि आलस्य व अकर्मण्यता से दूर होकर सतत प्रयत्न से ज्ञान प्रास करना नितान्त आवश्यक है, अत: है ज्ञान! (स्वा तनूः) = [मम शरीरभूतः त्वम्-सा०] मेरा शरीर बना हुआ तू (बलदावा) = बल को देनेवाला (नः आ इहि) = हमें प्राप्त हो। ज्ञान मेरा शरीर ही बन जाए। मैं सदा ज्ञान में निवास करनेवाला बनूं। इसी से मुझे इस संघर्षमय संसार में आनेवाले विघ्नों को सहन करने की शक्ति प्राप्त होगी।

    भावार्थ -

    सबसे बड़ा दौर्भाग्य यह है कि हम ज्ञान-प्राप्ति के साधक कर्मों से दूर हो जाते हैं। ज्ञान में ही निवास करने पर वह शक्ति प्राप्त होती है जो संसार में आगे बढ़ने में समर्थ बनाती है।

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