अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त
अ॒यं ते॑ अ॒स्म्युप॑ न॒ एह्य॒र्वाङ्प्र॑तीची॒नः स॑हुरे विश्वदावन्। मन्यो॑ वज्रिन्न॒भि न॒ आ व॑वृत्स्व॒ हना॑व॒ दस्यूं॑रु॒त बो॑ध्या॒पेः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ते॒ । अ॒स्मि॒ । उप॑ । न॒: । आ । इ॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । प्र॒ती॒ची॒न: । स॒हु॒रे॒ । वि॒श्व॒ऽदा॒व॒न् । मन्यो॒ इति॑ । व॒ज्रि॒न् । अ॒भि । न॒: । आ । व॒वृ॒त्स्व॒ । हना॑व । दस्यू॑न् । उ॒त । बो॒धि॒ । आ॒पे: ॥३२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं ते अस्म्युप न एह्यर्वाङ्प्रतीचीनः सहुरे विश्वदावन्। मन्यो वज्रिन्नभि न आ ववृत्स्व हनाव दस्यूंरुत बोध्यापेः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ते । अस्मि । उप । न: । आ । इहि । अर्वाङ् । प्रतीचीन: । सहुरे । विश्वऽदावन् । मन्यो इति । वज्रिन् । अभि । न: । आ । ववृत्स्व । हनाव । दस्यून् । उत । बोधि । आपे: ॥३२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 6
विषय - ज्ञान के प्रति रुचि-सौभाग्य
पदार्थ -
१. ज्ञान-रुचि बनकर यह कहता है कि हे ज्ञान! (अयं ते अस्मि) = यह मैं तेरा है, अर्थात् अब मैं ज्ञान का भक्त बन गया हूँ। (उप नः अर्वाङ् आ इह) = तू हमें समीपता से अभिमुख होता हुआ प्राप्त हो। (प्रतीचीन:) = मेरे शत्रुओं के प्रति गति करता हुआ तू मुझे प्राप्त हो। सहुरे-हे शत्रुओं का पराभव करनेवाले ज्ञान! (विश्वदावन्) = तू हमारे लिए सब ऐश्वयों का देनेवाला है। (हे वज्रिन्) = क्रियाशील-हमें क्रियाशील बनानेवाले (मन्यो) = ज्ञान! तु (नः अभि:) = हमारी ओर (आववृत्स्व) = आनेवाला हो। तू हमें सदा प्राप्त हो । (दस्यून हनाव) = हम तेरे साथ मिलकर दस्युओं का हनन करनेवाले हों। तेरे द्वारा हम दास्यबवृत्तियों को नष्ट कर सकें, (उत) = और हे ज्ञान! तू (आपे:) = अपने मित्र का-मेरा (बोधि) = ध्यान करनेवाला हो। तुझे ही शत्रुओं के संहार के द्वारा हमारा रक्षण करना है।
भावार्थ -
जिस दिन हम ज्ञान के आराधक बनते हैं, वह दिन हमारे सौभाग्यवाला होता है। इस ज्ञान के साथ मिलकर हम दास्यववृत्तियों का संहार करनेवाले बनें।
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