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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त

    अ॒भीहि॑ मन्यो त॒वस॒स्तवी॑या॒न्तप॑सा यु॒जा वि ज॑हि॒ शत्रू॑न्। अ॑मित्र॒हा वृ॑त्र॒हा द॑स्यु॒हा च॒ विश्वा॒ वसू॒न्या भ॑रा॒ त्वं नः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । इ॒हि॒ । म॒न्यो॒ इति॑ । त॒वस॑: । तवी॑यान् । तप॑सा । यु॒जा । वि । ज॒हि॒ । शत्रू॑न् । अ॒मि॒त्र॒ऽहा । वृ॒त्र॒ऽहा । द॒स्यु॒ऽहा । च॒ । विश्वा॑ । वसू॑नि । आ । भ॒र॒ । त्वम् । न॒: ॥३२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीहि मन्यो तवसस्तवीयान्तपसा युजा वि जहि शत्रून्। अमित्रहा वृत्रहा दस्युहा च विश्वा वसून्या भरा त्वं नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । इहि । मन्यो इति । तवस: । तवीयान् । तपसा । युजा । वि । जहि । शत्रून् । अमित्रऽहा । वृत्रऽहा । दस्युऽहा । च । विश्वा । वसूनि । आ । भर । त्वम् । न: ॥३२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १.हे (मन्यो) = ज्ञान! तू (अभि इहि) = हमारी ओर आनेवाला हो-हमें प्राप्त हो। तू (तवसः तवीयान्) = बलवान् से भी बलवान् है। ज्ञान सर्वाधिक शक्तिवाला है। हे ज्ञान ! (तपसा युजा) = तपरूप साथी के साथ तू (शत्रून् विजहि) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को नष्ट कर दे। तप से ज्ञान उत्पन्न होता है और यह ज्ञान काम आदि शत्रुओं का विध्वंस करनेवाला होता है। २. हे मन्यो! (अमित्रहा) = तू हमारे शत्रुओं का नाश करनेवाला है, (वृत्रहा) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को नष्ट करता है (च) = और (दस्युहा) = तू दास्यववृत्ति को समाप्त करनेवाला है। यह ज्ञान हमारी ध्वंसक वृत्तियों को दूर करता है। हे ज्ञान ! तू (नः) = हमारे लिए (विश्वा वसूनि) = निवास के लिए आवश्यक सब तत्वों को (आभर) = प्राप्त करानेवाला हो।

    भावार्थ -

    ज्ञान एक प्रबल शक्ति है। यह हमारे सब शत्रुओं को समाप्त करती है। यह ज्ञान हमें वसुओं को प्राप्त कराता है।

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