अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त
अ॒भि प्रेहि॑ दक्षिण॒तो भ॑वा॒ नोऽधा॑ वृ॒त्राणि॑ जङ्घनाव॒ भूरि॑। जु॒होमि॑ ते ध॒रुणं॒ मध्वो॒ अग्र॑मु॒भावु॑पां॒शु प्र॑थ॒मा पि॑बाव ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । प्र । इ॒हि॒ । द॒क्षि॒ण॒त: । भ॒व॒ । न॒: । अध॑ । वृ॒त्राणि॑ । ज॒ङ्घ॒ना॒व॒ । भूरि॑ । जु॒होमि॑ । ते॒ । ध॒रुण॑म् । मध्व॑: । अग्र॑म् । उ॒भौ । उ॒प॒ऽअं॒शु । प्र॒थ॒मा । पि॒बा॒व॒ ॥३२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्रेहि दक्षिणतो भवा नोऽधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि। जुहोमि ते धरुणं मध्वो अग्रमुभावुपांशु प्रथमा पिबाव ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । प्र । इहि । दक्षिणत: । भव । न: । अध । वृत्राणि । जङ्घनाव । भूरि । जुहोमि । ते । धरुणम् । मध्व: । अग्रम् । उभौ । उपऽअंशु । प्रथमा । पिबाव ॥३२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 7
विषय - ज्ञान+ध्यान-सोमरक्षण
पदार्थ -
१. हे ज्ञान ! तू (अभि प्रेहि) = मुझे अभिमुख्येन प्राप्त हो। (न:) = हमारे (दक्षिणतः भव) = दक्षिण की ओर हो, अर्थात् मैं तेरा आदर करनेवाला बनूं। जिसे हम आदर देते हैं, उसे दाहिनी ओर ही बिठाते हैं। (अध) = अब हम तेरे साथ मिलकर (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (भूरि) = खूब ही (जंघनाव) = नष्ट करें। २. (ते) = तेरे उद्देश्य से, तेरी प्रगति के लिए (धरुणम्) = शरीर का धारण करनेवाले (मध्वः अग्रम्) = मधुर वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ इस सोम को (जुहोमि) = अपने अन्दर आहुत करता हूँ। सोमरक्षण से बुद्धि की तीव्रता होकर ज्ञान में वृद्धि होती है। हे ज्ञान ! तू और मैं (उभा) = दोनों मिलकर (उपांशु) = चुपचाप-मौनपूर्वक-ध्यानावस्था को अपनाकर प्रथमा पिबाव सबसे प्रथम इस सोम का पान करते हैं। ज्ञान-प्राप्ति व ध्यान सोमरक्षण के साधन बनते हैं।
भावार्थ -
हम ज्ञान को साथी बनाकर वृत्र आदि शत्रुओं का हनन करें। इस ज्ञान की प्रासि के लिए सोम का पान करें। ये ज्ञान और ध्यान हमें सोम-रक्षण में समर्थ बनाएँ।
विशेष -
ज्ञान और ध्यान द्वारा वासना-विनाश करता हुआ तथा सब शक्तियों का विकास करता हुआ यह व्यक्ति 'ब्रह्मा' बनता है। पाप का नाश करनेवाला यह 'ब्रह्मा' प्रार्थना करता है -