अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घमग्ने॑ शुशु॒ग्ध्या र॒यिम्। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् । अग्ने॑ । शु॒शु॒ग्धि । आ । र॒यिम् । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अप नः शोशुचदघमग्ने शुशुग्ध्या रयिम्। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठअप । न: । शोशुचत् । अघम् । अग्ने । शुशुग्धि । आ । रयिम् । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
विषय - पवित्र धन
पदार्थ -
१. (न:) = हमसे होनेवाला (अघम्) = पाप (अप) = दूर होकर (शोशुचत्) = ठहरने का स्थान न रहने से शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए। हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (रयिम्) = हमारे धनों को (शुशुग्धि) = सब प्रकार से शुद्ध कर दीजिए। हमारा धन सुपथ से कमाया जाकर प्रकाशमय ही हो। २. वस्तुत: शुद्ध मार्ग से ही धन कमाना है, इस वृत्ति के आते ही पाप समाप्त हो जाते हैं। अन्याय से धन कमाने की वृत्ति के मूल में 'लोभ' है। यह लोभ ही सब पापों का मूल है, अत: हे प्रभो! आप हमारे इस लोभ को दूर करके धन को पवित्र कीजिए, जिससे हमारा यह सब (अघम्) = पाप (अप) = हमसे दूर होकर (शोशुचत्) = शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए।
भावार्थ -
हम पवित्र कर्मों से ही धन कमाएँ। ऐसा होने पर न लोभ होगा और न पाप। पवित्र धन हमारे सब पापों को नष्ट कर देगा।
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