अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 6
त्वं हि वि॑श्वतोमुख वि॒श्वतः॑ परि॒भूर॑सि। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । हि । वि॒श्व॒त॒:ऽमु॒ख॒ । वि॒श्वत॑: । प॒रि॒ऽभू: । असि॑ । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं हि विश्वतोमुख विश्वतः परिभूरसि। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । हि । विश्वत:ऽमुख । विश्वत: । परिऽभू: । असि । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 6
विषय - विश्वतोमुख प्रभु का उपासन
पदार्थ -
१. हे (विश्वतोमुख) = सब ओर मुखोंवाले परामात्मन्! (त्वम्) = आप (हि) = निश्चय से (विश्वत:) = सब और से (परिभू:) = हमारे रक्षक (असि) = हैं [परिभू-परिग्रहीता]। चारों ओर से आक्रमण करनेवाले इन शत्रुओं को विश्वतोमुख आप ही नष्ट कर सकते हो। २.हे प्रभो। आपके रक्षण में (अघम्) = यह पाप (न:) = हमसे (अप) = दूर होकर (शोशुचत्) = शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए। किसी भी ओर से पाप का आक्रमण हो, ये विश्वतोमुख प्रभु उसका नाश करते ही हैं। अन्दर-ही-अन्दर पैदा हो जानेवाले [मनसिज] कामादि शत्रु भी हृदयस्थ प्रभु के तेज से दग्ध हो जाते हैं।
भावार्थ -
विश्वतोमुख प्रभु का उपासन हमें सब ओर से रक्षित करता है, हमपर पापों का आक्रमण नहीं होने देता।
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