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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 33

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - पापनाशन सूक्त

    सु॑क्षेत्रि॒या सु॑गातु॒या व॑सू॒या च॑ यजामहे। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽक्षे॒त्रि॒या । सु॒ऽगा॒तु॒या । व॒सु॒ऽया । च॒ । य॒जा॒म॒हे॒ । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुक्षेत्रिया सुगातुया वसूया च यजामहे। अप नः शोशुचदघम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽक्षेत्रिया । सुऽगातुया । वसुऽया । च । यजामहे । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (सक्षेत्रिया) = इस उत्तम शरीररूप क्षेत्र को शोभन बनाने की इच्छा से (यजामहे) = हे प्रभो! हम आपका पूजन करते हैं। प्रभु-पूजन से हम प्रकृति के भोगों में नहीं फँसते और शरीर में रोग नहीं आते। एवं, यह शरीररूप क्षेत्र नीरोगता के द्वारा सुक्षेत्र बना रहता है। २. (सगातुया) = उत्तम मार्ग की कामना से हम हे प्रभो। आपका संगतिकरण करते हैं। आपके साथ चलते हुए हम भटकते नहीं। आप हमारा मार्ग-दर्शन करते हैं और इसप्रकार हम जीवन में शुभ मार्ग से ही चलते हैं (च) = और (वसूया) = वसुओं को प्राप्त करने की कामना से [यजामहे]-हम आपके प्रति अपना दान करते हैं। प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला प्रभु से सब वसुओं को प्राप्त करता है। ३. हे प्रभो! हमारी ये कामनाएँ बनी रहें कि [क] हमें प्रभु-पूजन द्वारा भोग-प्रवणता से ऊपर उठकर शरीर के नीरोग बनाना है, [ख] प्रभु के सम्पर्क में रहकर सदा उत्तम मर्ग पर चलना है और [ग] प्रभु के प्रति अपना अर्पण करके-दानवृत्ति को अपनाकर वसुओं को प्राप्त करना है। ऐसा होने पर (अघम्) = पाप (न:) = हमसे (अप) = दूर होकर (शोशुचत्) = शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए।

    भावार्थ -

    शरीर को उत्तम बनाने की कामना, उत्तम मार्ग पर चलने की कामना व वसु प्राप्ति की कामना से 'प्रभु-पूजन, प्रभु-संगतिकरण व प्रभु के प्रति अर्पण' में प्रवृत्त होने पर हम पापों से दूर हों।

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