अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
प्र यद्भन्दि॑ष्ठ एषां॒ प्रास्माका॑सश्च सू॒रयः॑। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । भन्दि॑ष्ठ: । ए॒षा॒म् । प्र । अ॒स्माका॑स: । च॒ । सू॒रय॑: । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यद्भन्दिष्ठ एषां प्रास्माकासश्च सूरयः। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यत् । भन्दिष्ठ: । एषाम् । प्र । अस्माकास: । च । सूरय: । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 3
विषय - लोकहितप्रवृत्ति व सजन-संग
पदार्थ -
१. (यत्) = क्योंकि मैं (एषाम) = इन मनुष्यों का (प्रभन्दिष्ठः) = [भदि कल्याणे सुखे च] अधिक से-अधिक कल्याण व सुख करनेवाला हूँ च और (अस्माकास:) = हमारे साथ मेलवाले लोग (प्रसूरयः) = प्रकृष्ट ज्ञानी हैं, अर्थात् हम ज्ञानियों के सम्पर्क में ही उठते-बैठते हैं, अत: (न:) = हमारा (अघम्) = पाप (अप) = हमसे पृथक होकर (शोशुचत्) = शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए। २. पाप को दूर करने के लिए आवश्यक है कि [क] हम लोकहित के कर्मों में लगे रहें, आराम की वृत्ति आई तो पाप भी आये, [ख] हम सदा ज्ञानियों के सम्पर्क में रहें, उन्हीं के साथ हमारा उठना बैठना हो। सत्सङ्ग पाप से बचाता है, कुसंग पाप में फँसाता है।
भावार्थ -
पाप से बचने के लिए हम लोकहित के कामों में लगे रहें और सदा सत्संग में रहें।
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