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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 33

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - पापनाशन सूक्त

    प्र यद॒ग्नेः सह॑स्वतो वि॒श्वतो॒ यन्ति॑ भा॒नवः॑। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । यत् । अ॒ग्ने: । सह॑स्वत: । वि॒श्वत॑: । यन्ति॑ । भा॒नव॑: । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यदग्नेः सहस्वतो विश्वतो यन्ति भानवः। अप नः शोशुचदघम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । यत् । अग्ने: । सहस्वत: । विश्वत: । यन्ति । भानव: । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जब (सहस्वतः) = सहस्वाले-सहोरूप [शक्तिपुञ्ज] (अग्नेः) = अग्नणी प्रभु की (भानव:) = ज्ञानदीसियाँ (विश्वतः) = हमारे जीवन में सब ओर (प्रयन्ति) = प्रकर्षेण गति करती हैं, तब (न:) = हमारे (अघम्) = पाप (अप) = हमसे दूर होकर (शोशचत्) = शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाते हैं। २. ज्ञान के प्रकाश में पापान्धकार विलीन हो जाता है। सहस्वान् प्रभु के सहस् से सहस्वाले बनकर हम पापरूप शत्रुओं को कुचल डालते हैं [सहस्-शत्रु-मर्षक बल]।

    भावार्थ -

    प्रभु के सम्पर्क में हम प्रकाश व बल को प्राप्त करके पापों को कुचल डालते हैं।

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