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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
    सूक्त - प्रजापतिः देवता - अतिमृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - मृत्युसंतरण सूक्त

    यमो॑द॒नं प्र॑थम॒जा ऋ॒तस्य॑ प्र॒जाप॑ति॒स्तप॑सा ब्र॒ह्मणेऽप॑चत्। यो लो॒कानां॒ विधृ॑ति॒र्नाभि॒रेषा॒त्तेनौ॑द॒नेनाति॑ तराणि मृ॒त्युम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । ओ॒द॒नम् । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तस्य॑ । प्र॒जाऽप॑ति: । तप॑सा । ब्र॒ह्मणे॑ । अप॑चत् । य: । लो॒काना॑म् । विऽधृ॑ति: । न । अ॒भि॒ऽरेषा॑त् । तेन॑ । ओ॒द॒नेन॑ । अति॑ । त॒रा॒णि॒ । मृ॒त्युम् ॥३५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमोदनं प्रथमजा ऋतस्य प्रजापतिस्तपसा ब्रह्मणेऽपचत्। यो लोकानां विधृतिर्नाभिरेषात्तेनौदनेनाति तराणि मृत्युम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । ओदनम् । प्रथमऽजा: । ऋतस्य । प्रजाऽपति: । तपसा । ब्रह्मणे । अपचत् । य: । लोकानाम् । विऽधृति: । न । अभिऽरेषात् । तेन । ओदनेन । अति । तराणि । मृत्युम् ॥३५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (ऋतस्य प्रथमजा:) = ऋत के-सब सत्यविद्याओं के प्रथम उत्पत्तिस्थान (प्रजापति:) = सब प्रजाओं के रक्षक प्रभु ने (तपसा) = अपने ज्ञानरूप तप के द्वारा [तस्य ज्ञानमयं तपः] (यम् ओदनम्) = जिस ज्ञान-भोजन [ब्रह्मौदन] को (ब्रह्मणे) = ज्ञान के लिए लोगों को ज्ञान देने के लिए (अपचत्) = पकाया, प्रभु ने ही सृष्टि के प्रारम्भ में लोकहित के लिए इस जानभोजन को परिपक्व किया, २. (यः) = जो ज्ञान का भोजन (लोकानाम्) = सब लोकों का (विधति:) = धारण करनेवाला है और (न अभिरेषात्) = जो हमारा हिंसन नहीं करता-हमें हिंसित होने से बचाता है, (तेन ओदनेन) = उस ज्ञान-भोजन से (मृत्युम् अतितराणि) = मृत्यु को तैर जाऊँ। प्रकृति का ज्ञान मुझे प्राकृतिक पदार्थों के यथायोग द्वारा रोगों से बचाता है तथा आत्मज्ञान जन्म-मरण के चक्र से बचानेवाला बनता है।

    भावार्थ -

    प्रभु ने ही सृष्टि के आरम्भ में इस ज्ञान-भोजन का परिपाक किया। यह ज्ञान ही सब लोकों का धारक है। यह मुझे मृत्यु से तराता है।

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