अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 7
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - अतिमृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - मृत्युसंतरण सूक्त
अव॑ बाधे द्वि॒षन्तं॑ देवपी॒युं स॒पत्ना॒ ये मेऽप॑ ते भवन्तु। ब्र॑ह्मौद॒नं वि॑श्व॒जितं॑ पचामि शृ॒ण्वन्तु॑ मे श्र॒द्दधा॑नस्य दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । बा॒धे॒ । द्वि॒षन्त॑म् । दे॒व॒ऽपी॒युम् । स॒ऽपत्ना॑: । ये । मे॒ । अप॑ । ते । भ॒व॒न्तु॒ । ब्र॒ह्म॒ऽओ॒द॒नम् । वि॒श्व॒ऽजित॑म् । प॒चा॒मि॒ । शृ॒ण्वन्तु॑ । मे॒ । श्र॒त्ऽदधा॑नस्य । दे॒वा: ॥३५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अव बाधे द्विषन्तं देवपीयुं सपत्ना ये मेऽप ते भवन्तु। ब्रह्मौदनं विश्वजितं पचामि शृण्वन्तु मे श्रद्दधानस्य देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठअव । बाधे । द्विषन्तम् । देवऽपीयुम् । सऽपत्ना: । ये । मे । अप । ते । भवन्तु । ब्रह्मऽओदनम् । विश्वऽजितम् । पचामि । शृण्वन्तु । मे । श्रत्ऽदधानस्य । देवा: ॥३५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 7
विषय - विश्वजित् ब्रह्मौदन का पाक
पदार्थ -
१. मैं ज्ञान के द्वारा (द्विषन्तम्) = द्वेष करनेवाले शत्रु को (अवबाधे) = अपने से दूर रखता हूँ द्वेष की भावना को अपने समीप नहीं आने देता, (देवपीयुम्) = देवों की हिंसक-दिव्य गुणों को नष्ट करनेवाली बृत्ति को दूर रखता हूँ। (ये) = जो (मे) = मेरे (सपत्ना:) = रोगरूप शत्रु हैं, (ते अपभवन्तु) = वे सब दूर हों। २. मैं (विश्वजितम्) = सम्पूर्ण संसार का विजय करनेवाले-काम आदि सब शत्रुओं को पराजित करनेवाले (ब्रह्मौदनम्) = ज्ञान के भोजन को (पचामि) = पकाता हूँ-अपने में ज्ञानवृद्धि के लिए यत्नशील होता हूँ। (श्रत्-दधानस्य) = श्रद्धा से युक्त मे मेरी प्रार्थना को (देवा:) = ज्ञानी पुरुष शृण्वन्तु-सुनें, सब देव मुझे ज्ञान भोजन देने का अनुग्रह करें। इनकी कृपा से ही मुझे ज्ञान प्राप्त होगा|
भावार्थ -
ज्ञान से द्वेष व अन्य काम-क्रोधादि शत्रु नष्ट हो जाते हैं। यह ज्ञानभोजन सबका विजय करता है। श्रद्धायुक्त होकर मैं देवों से ज्ञान प्राप्त करता हूँ।
विशेष -
ज्ञान के द्वारा शत्रुओं को नष्ट करनेवाला यह 'चातन' बनता है [one who destroys]। यही अगले सूक्त का ऋषि है -