अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
सूक्त - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
तान्त्स॒त्यौजाः॒ प्र द॑हत्व॒ग्निर्वै॑श्वान॒रो वृषा॑। यो नो॑ दुर॒स्याद्दिप्सा॒च्चाथो॒ यो नो॑ अराति॒यात् ॥
स्वर सहित पद पाठतान् । स॒त्यऽओ॑जा: । प्र । द॒ह॒तु॒ । अ॒ग्नि: । वै॒श्वा॒न॒र: । वृषा॑ । य: । न॒: । दु॒र॒स्यात् । दिप्सा॑त् । च॒ । अथो॒ इति॑ । य: । न॒: । अ॒रा॒ति॒ऽयात् ॥३६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तान्त्सत्यौजाः प्र दहत्वग्निर्वैश्वानरो वृषा। यो नो दुरस्याद्दिप्साच्चाथो यो नो अरातियात् ॥
स्वर रहित पद पाठतान् । सत्यऽओजा: । प्र । दहतु । अग्नि: । वैश्वानर: । वृषा । य: । न: । दुरस्यात् । दिप्सात् । च । अथो इति । य: । न: । अरातिऽयात् ॥३६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
विषय - 'सत्यौजा-वैश्वानर-वृषा' अग्नि
पदार्थ -
१. (सत्यौजा:) = सत्य के बलवाला या सत्य बलवाला (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों का हित करनेवाला (वृषा) = सबपर सुखों का सेचन करनेवाला (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (तान् प्रदहतुः) = उन्हें भस्म कर दे (य:) = जो (न:) = हमें (दुरस्यात्) = बुरी अवस्था में फेंकनेवाला हो-हममें अविद्यमान दोषों का भी यूँही उद्भावन करता रहे, (च) = और (दिप्सात) = हिंसित करने की इच्छा करे [धिप्सेत्] (अथ उ) = और निश्चय से (यः) = जो शत्रु (न:) = हमारे प्रति (अरातियात्) = अराति-[शत्रु]-बत् आचरण करे जो हमारे प्रति सदा शत्रुता की भावनावाला है। २. अध्यात्म में 'काम' रूप शत्रु हमें बड़ी दुरवस्था में फेंकनेवाला होता है, 'क्रोध' हमें हिंसित करता है [दिप्सात्] तथा 'लोभ' हमारे प्रति अराति की भाँति आचरणवाला होता है [अ-राति न देने की वृत्ति] वस्तुत: न देने की वृत्ति [अ+राति] ही तो लोभ है। काम को जीतकर हम सत्य बलवाले होंगे, क्रोध को जीतकर ही 'वैश्वानर' बनेंगे। लोभ को जीतकर दान करते हुए सबपर सुखों का वर्षण करनेवाले होंगे [वृषा]। इसप्रकार उन्नति-पथ पर बढ़नेवाले हम 'अग्नि' ही बन जाएंगे।
भावार्थ -
हम काम-क्रोध व लोभ को जीतकर 'सत्यौजा-वैश्वानर-वृषा' अग्नि बनें।
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